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प्रेमचंद की कहानी: स्‍वामिनी (भाग-2)

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(कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की कहानियों की श्रृंखला में महिला चरित्रों की प्रभावशाली चरित्र-चित्रण की विशेषता दिखाने वाली कहानियों की पिछली कड़ी में आपने ‘बड़े घर की बेटी’ पढा. इसी श्रृंखला हम आज लेकर आए हैं उनकी प्रसिद्ध कहानी ‘स्वामिनी’. पांच भागों में इस कहानी को यहां हम पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. उम्मीद है यह दूसरी कड़ी पाठकों को पसंद आएगी. कहानी पर आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रया का हमें इंतजार रहेगा.)

गतांक से आगे……

प्रेमचंद की कहानीकई महीने बीत गये. प्यारी के अधिकार में आते ही उस घर में जैसे वसंत आ गया. भीतर-बाहर जहां देखिए, किसी निपुण प्रबंधक के हस्तकौशल, सुविचार और सुरूचि के चिह्न दिखते थे. प्यारी ने गृहयंत्र की ऐसी चाभी कस दी थी कि सभी पुरजे ठीक-ठाक चलने लगे थे. भोजन पहले से अच्छा मिलता है और समय पर मिलता है. दूध ज्यादा होता है, घी ज्यादा होता है, और काम ज्यादा होता है. प्यारी न खुद विश्राम लेती है, न दूसरों को विश्राम लेने देती है. घर में ऐसी बरकत आ गई है कि जो चीज मांगो, घर ही में निकल आती है. आदमी से लेकर जानवर तक सभी स्वस्थ दिखाई देते हैं. अब वह पहले की-सी दशा नहीं है कि कोई चिथड़े लपेटे घूम रहा है, किसी को गहने की धुन सवार है. हां अगर कोई रूग्ण और चिंतित तथा मलिन वेश में है, तो वह प्यारी है; फिर भी सारा घर उससे जलता है. यहां तक कि बूढ़े शिवदास भी कभी-कभी उसकी बदगोई करते हैं. किसी को पहर रात रहे उठना अच्छा नहीं लगता. मेहनत से सभी जी चुराते हैं. फिर भी यह सब मानते हैं कि प्यारी न हो, तो घर का काम न चले. और तो और, दोनों बहनों में भी अब उतना अपनापन नहीं.


प्रात:काल का समय था. दुलारी ने हाथों के कड़े लाकर प्यारी के सामने पटक दिये और घुन्नाई हुई बोली- लेकर इसे भी भंडारे में बंद कर दे.


प्यारी ने कड़े उठा लिए और कोमल स्वर से कहा- कह तो दिया, हाथ में रूपए आने दे, बनवा दूंगी. अभी ऐसा घिस नहीं गया है कि आज ही उतारकर फेंक दिया जाय.


दुलारी लड़ने को तैयार होकर आई थी. बोली- तेरे हाथ में काहे को कभी रूपए आएंगे और काहे को कड़े बनेंगे. जोड़- जोड़ रखने में मजा आता है न?


प्यारी ने हंसकर कहा- जोड़-जोड़ रखती हूं तो तेरे ही लिए कि मेरे कोई और बैठा हुआ है, कि मैं सबसे ज्यादा खा-पहन लेती हूं. मेरा अनंत कब का टूटा पड़ा है.


दुलारी- तुम न खाओ, न पहनो, जस तो पाती हो. यहां खाने-पहनने के सिवा और क्या है? मैं तुम्हारा हिसाब-किताब नहीं जानती, मेरे कड़े आज बनने को भेज दो.


प्यारी ने सरल विनोद के भाव से पूछा- रूपये न हों, तो कहां से लाऊं?


दुलारी ने उद्दंडता के साथ कहा- मुझे इससे कोई मतलब नहीं. मैं तो कड़े चाहती हूं.


इसी तरह घर के सब आदमी अपने-अपने अवसर पर प्यारी को दो-चार खरी- खोटी सुना जाते थे, और वह गरीब सबकी धौंस हंसकर सहती थी. स्वामिनी का यह धर्म है कि सबकी धौंस सुन ले और करे वही, जिसमें घर का कल्याण हो! स्वामित्व के कवच पर धौंस, ताने, धमकी किसी का असर न होता. उसकी स्वामिनी की कल्पना इन आघातों से और भी स्वस्थ होती थी. वह गृहस्थी की संचालिका है. सभी अपने-अपने दु:ख उसी के सामने रोते हैं, पर जो कुछ वह करती है, वही होता है. इतना उसे प्रसन्न करने के लिए काफी था. गांव में प्यारी की सराहना होती थी. अभी उम्र ही क्या है, लेकिन सारे घर को संभाले हुए है. चाहती तो सगाई करके चैन से रहती. इस घर के पीछे अपने को मिटाए देती है. कभी किसी से हंसती-बोलती भी नहीं, जैसे काया पलट हो गयी.


कई दिन बाद दुलारी के कड़े बनकर आ गये. प्यारी खुद सुनार के घर दौड़-दौड़ गई.


संध्या हो गयी थी. दुलारी और मथुरा हाट से लौटे. प्यारी ने नये कड़े दुलारी को दिए. दुलारी निहाल हो गयी. चटपट कड़े पहने और दौड़ी हुई बरौठे में जाकर मथुरा को दिखाने लगी. प्यारी बरौठे के द्वार पर छिपी खड़ी यह दृश्य देखने लगी. उसकी आंखें सजल हो गईं. दुलारी उससे कुल तीन ही साल तो छोटी है! पर दोनों में कितना अंतर है. उसकी आंखें मानों उस दृश्य पर जम गईं, दंपति का वह सरल आनंद, उनका प्रेमालिंगन, उनकी मुग्ध मुद्रा- प्यारी की टकटकी-सी बंध गई, यहां तक कि दीपक के धुंधले प्रकाश में वे दोनों उसकी नजरों से गायब हो गये और अपने ही अतीत जीवन की एक लीला आंखों के सामने बार-बार नए-नए रूप में आने लगी.


सहसा शिवदास ने पुकारा- बड़ी बहू! एक पैसा दो. तमाखू मंगवाऊं.


प्यारी की समाधि टूट गयी. आंसू पोंछती हुई भंडारे में पैसा लेने चली गयी.


4

एक-एक करके प्यारी के गहने उसके हाथ से निकलते जाते थे. वह चाहती थी, मेरा घर गांव में सबसे संपन्न समझा जाए, और इस महत्वाकांक्षा का मूल्य देना पड़ता था. कभी घर की मरम्मत के लिए और कभी बैलों की नई गोई खरीदने के लिए, कभी नातेदारों के व्यवहारों के लिए, कभी बीमारों की दवा-दारू के लिए रूपए की जरूरत पड़ती रहती थी, और जब बहुत कतरब्योंत करने पर भी काम न चलता तो वह अपनी कोई-न-कोई चीज निकाल देती. और चीज एक बार हाथ से निकलकर फिर न लौटती थी. वह चाहती, तो इनमें से कितने ही खर्चों को टाल जाती; पर जहां इज्जत की बात आ पड़ती थी, वह दिल खोलकर खर्च करती. अगर गांव में हेठी हो गई, तो क्या बात रही! लोग उसी का नाम तो धरेंगे. दुलारी के पास भी गहने थे. दो-एक चीजें मथुरा के पास भी थीं, लेकिन प्यारी उनकी चीजें न छूती. उनके खाने-पहनने के दिन हैं. वे इस जंजाल में क्यों फंसे!


दुलारी को लड़का हुआ, तो प्यारी ने धूम से जन्मोत्सव मनाने का प्रस्ताव किया.


शिवदास ने विरोध किया- क्या फायदा? जब भगवान की दया से सगाई-ब्याह के दिन आएंगे, तो धूम-धाम कर लेना.


प्यारी का हौसलों से भरा दिल भला क्यों मानता! बोली- कैसी बात कहते हो दादा? पहलौठे लड़के के लिए भी धूम-धाम न हुई तो कब होगी? मन तो नहीं मानता. फिर दुनिया क्या कहेगी? नाम बड़े, दर्शन थोड़े. मैं तुमसे कुछ नहीं मांगती. अपना सारा सरंजाम कर लूंगी.


गहनों के माथे जायगी, और क्या?- शिवदास ने चिंतित होकर कहा- इस तरह एक दिन धागा भी न बचेगा. कितना समझाया, बेटा, भाई-भौजाई किसी के नहीं होते. अपने पास दो चीजें रहेंगी, तो सब मुंह जोहेंगे; नहीं कोई सीधे बात भी न करेगा.


प्यारी ने ऐसा मुंह बनाया, मानो वह ऐसी बूढ़ी बातें बहुत सुन चुकी है, और बोली- जो अपने हैं, वे भी न पूछें, तो भी अपने ही रहते हैं. मेरा धरम मेरे साथ है, उनका धरम उनके साथ है. मर जाऊंगी तो क्या छाती पर लाद ले जाऊंगी?


धूम-धाम से जन्मोत्सव मनाया गया. बरही के दिन सारी बिरादरी का भोज हुआ. लोग खा-पीकर चले गये, प्यारी दिन-भर की थकी-मांदी आंगन में एक टाट का टुकड़ा बिछाकर कमर सीधी करने लगी. आंखें झपक गईं. मथुरा उसी वक्त घर में आया. नवजात पुत्र को देखने के लिए उसका चित्त व्याकुल हो रहा था. दुलारी सौर-गृह से निकल चुकी थी. गर्भावस्था में उसकी देह क्षीण हो गयी थी, मुंह भी उतर गया था, पर आज स्वस्थता की लालिमा मुख पर छायी हुई थी. सौर के संयम और पौष्टिक भोजन ने देह को चिकना कर दिया था. मथुरा उसे आंगन में देखते ही समीप आ गया और एक बार प्यारी की ओर ताककर उसके निद्रामग्न होने का निश्चय करके उसने शिशु को गोद में ले लिया और उसका मुंह चूमने लगा.


आहट पाकर प्यारी की आंखें खुल गईं; पर उसने नींद का बहाना किया और अधखुली आंखों से यह आनंद-क्रीड़ा देखने लगी. माता और पिता दोनों बारी-बारी से बालक को चूमते, गले लगाते और उसके मुख को निहारते थे. कितना स्वर्गीय आनंद था! प्यारी की तृषित लालसा एक क्षण के लिए स्वामिनी को भूल गई. जैसे लगाम से मुखबद्ध, बोझ से लदा हुआ, हांकने वाले के चाबुक से पीड़ित, दौड़ते-दौड़ते बेदम तुरंग हिनहिनाने की आवाज सुनकर कनौतियां खड़ी कर लेता है और परिस्थिति को भूलकर एक दबी हुई हिनहिनाहट से उसका जवाब देता है, कुछ वही दशा प्यारी की हुई. उसका मातृत्व जो पिंजरे में बंद, मूक, निश्चेष्ट पड़ा हुआ था, समीप से आनेवाली मातृत्व की चहकार सुनकर जैसे जाग पड़ा और चिन्ताओं के उस पिंजरे से निकलने के लिए पंख फड़फड़ाने लगा.


मथुरा ने कहा- यह मेरा लड़का है.


दुलारी ने बालक को गोद में चिपटाकर कहा- हां, क्यों नहीं. तुम्हीं ने तो नौ महीने पेट में रखा है. सांसत तो मेरी हुई, बाप कहलाने के लिए तुम कूद पड़े.


मथुरा- मेरा लड़का न होता, तो मेरी सूरत का क्यों होता. चेहरा-मोहरा, रंग-रूप सब मेरा ही-सा है कि नहीं?


दुलारी- इससे क्या होता है. बीज बनिये के घर से आता है. खेत किसान का होता है. उपज बनिये की नहीं होती, किसान की होती है.


मथुरा- बातों में तुमसे कोई न जीतेगा. मेरा लड़का बड़ा हो जाएगा, तो मैं द्वार पर बैठकर मजे से हुक्का पिया करूंगा.


दुलारी- मेरा लड़का पढ़े-लिखेगा, कोई बड़ा हुद्दा पाएगा. तुम्हारी तरह दिन-भर बैल के पीछे न चलेगा. मालकिन से कहना है, कल एक पालना बनवा दें.


मथुरा- अब बहुत सबेरे न उठा करना और छाती फाड़कर काम भी न करना.


दुलारी- यह महारानी जीने देंगी?


मथुरा- मुझे तो बेचारी पर दया आती है. उसके कौन बैठा हुआ है? हमीं लोगों के लिए मरती है. भैया होते, तो अब तक दो-तीन बच्चों की मां हो गई होती.


प्यारी के कंठ में आंसुओं का ऐसा वेग उठा कि उसे रोकने में सारी देह कांप उठी. अपना वंचित जीवन उसे मरूस्थल-सा लगा, जिसकी सूखी रेत पर वह हरा-भरा बाग लगाने की निष्फल चेष्टा कर रही थी.

(शेष अगले अंक में……)

प्रेमचंद की कहानी

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