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प्रेमचंद की कहानी: स्‍वामिनी

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(कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद कीकहानियों की श्रृंखला में महिला चरित्रों की प्रभावशाली चरित्र-चित्रण की विशेषता दिखाने वाली कहानियों की पिछली कड़ी में आपने ‘बड़े घर की बेटी’ पढा. इसी श्रृंखला हम आज लेकर आए हैं उनकी प्रसिद्ध कहानी ‘स्वामिनी’. पांच भागों में इस कहानी को यहां हम पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. उम्मीद है यह पहली कड़ी पाठकोंको पसंद आएगी. कहानी परआपकी बहुमूल्यप्रतिक्रया काहमें इंतजार रहेगा.)


प्रेमचंद-की-कहानीशिवदास ने भंडारे की कुंजी अपनी बहू रामप्यारी के सामने फेंककर अपनी बूढ़ी आंखों में आंसू भरकर कहा- बहू, आज से गिरस्ती की देखभाल तुम्हारे ऊपर है. मेरा सुख भगवान से नहीं देखा गया, नहीं तो क्या जवान बेटे को यों छीन लेते! उसका काम करने वाला तो कोई चाहिए. एक हल तोड़ दूं, तो गुजारा न होगा. मेरे ही कुकरम से भगवान का यह कोप आया है, और मैं ही अपने माथे पर उसे लूंगा. बिरजू का हल अब मैं ही संभालूंगा. अब घर की देख-रेख करने वाला, धरने-उठाने वाला तुम्हारे सिवा दूसरा कौन है? रोओ मत बेटा, भगवान की जो इच्छा थी, वह हुआ; और जो इच्छा होगी वह होगा. हमारा-तुम्हारा क्या बस है? मेरे जीते-जी तुम्हें कोई टेढ़ी आंख से देख भी न सकेगा. तुम किसी बात का सोच मत किया करो. बिरजू गया, तो अभी बैठा ही हुआ हूं.


रामप्यारी और रामदुलारी दो सगी बहनें थीं. दोनों का विवाह मथुरा और बिरजू दो सगे भाइयों से हुआ. दोनों बहनें नैहर की तरह ससुराल में भी प्रेम और आनंद से रहने लगीं. शिवदास को पेंशन मिली. दिन-भर द्वा र पर गपशप करते. भरा-पूरा परिवार देखकर प्रसन्न होते और अधिकतर धर्म-चर्चा में लगे रहते थे; लेकिन दैवगति से बड़ा लड़का बिरजू बीमार पड़ा और आज उसे मरे हुए पंद्रह दिन बीत गए. आज क्रिया-कर्म से फुरसत मिली और शिवदास ने सच्चे कर्मवीर की भांति फिर जीवन संग्राम के लिए कमर कस ली. मन में उसे चाहे कितना ही दु:ख हुआ हो, उसे किसी ने रोते नहीं देखा. आज अपनी बहू को देखकर एक क्षण के लिए उसकी आंखें सजल हो गईं; लेकिन उसने मन को संभाला और रुद्ध कंठ से उसे दिलासा देने लगा. कदाचित उसने सोचा था, घर की स्वामिनी बनकर विधवा के आंसू पुंछ जाएंगे, कम-से-कम उसे इतना कठिन परिश्रम न करना पड़ेगा, इसलिए उसने भंडारे की कुंजी बहू के सामने फेंक दी थी. वैधव्य की व्यथा को स्वामित्व के गर्व से दबा देना चाहता था.


रामप्यारी ने पुलकित कंठ से कहा- यह कैसे हो सकता है दादा, कि तुम मेहनत-मजदूरी करो और मैं मालकिन बनकर बैठूं? काम धंधे में लगी रहूंगी, तो मन बदला रहेगा. बैठे-बैठे तो रोने के सिवा और कुछ न होगा.


शिवदास ने समझाया- बेटा, दैवगति में तो किसी का बस नहीं, रोने-धोने से हलकानी के सिवा और क्या हाथ आयेगा? घर में भी तो बीसों काम हैं. कोई साधु-संत आ जाएं, कोई पाहुना ही आ पहुंचे, तो उनके सेवा-सत्कार के लिए किसी को घर पर रहना ही पड़ेगा.


बहू ने बहुत-से हीले किये, पर शिवदास ने एक न सुनी.


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शिवदास के बाहर चले जाने पर रामप्यारी ने कुंजी उठायी, तो उसे मन में अपूर्व गौरव और उत्तरदायित्व का अनुभव हुआ. जरा देर के लिए पति-वियोग का दु:ख उसे भूल गया. उसकी छोटी बहन और देवर दोनों काम करने गये हुए थे. शिवदास बाहर था. घर बिलकुल खाली था. इस वक्त वह निश्चिंत होकर भंडारे को खोल सकती है. उसमें क्या-क्या सामान है, क्या-क्या विभूति है, यह देखने के लिए उसका मन लालायित हो उठा. इस घर में वह कभी न आयी थी. जब कभी किसी को कुछ देना या किसी से कुछ लेना होता था, तभी शिवदास आकर इस कोठरी को खोला करता था. फिर उसे बंदकर वह ताली अपनी कमर में रख लेता था.


रामप्यारी कभी-कभी द्वार की दरारों से भीतर झांकती थी, पर अंधेरे में कुछ न दिखाई देता. सारे घर के लिए वह कोठरी तिलिस्म या रहस्य था, जिसके विषय में भांति-भांति की कल्पनाएं होती रहती थीं. आज रामप्यारी को वह रहस्य खोलकर देखने का अवसर मिल गया. उसने बाहर का द्वार बंद कर दिया, कि कोई उसे भंडार खोलते न देख ले, नहीं सोचेगा, बेजरूरत उसने क्यों खोला, तब आकर कांपते हुए हाथों से ताला खोला. उसकी छाती धड़क रही थी कि कोई द्वार न खटखटाने लगे. अंदर पांव रखा तो उसे कुछ उसी प्रकार का, लेकिन उससे कहीं तीव्र आनंद हुआ, जो उसे अपने गहने-कपड़े की पिटारी खोलने में होता था. मटकों में गुड़, शक्कर, गेहूं, जौ आदि चीजें रखी हुई थीं. एक किनारे बड़े-बड़े बरतन धरे थे, जो शादी-ब्याह के अवसर पर निकाले जाते थे, या मांगे-दिए जाते थे. एक आले पर मालगुजारी की रसीदें और लेन-देन के पुरजे बंधे हुए रखे थे. कोठरी में एक विभूति-सी छायी थी, मानो लक्ष्मी अज्ञात रूप से विराज रही हों. उस विभूति की छाया में रामप्यारी आधे घंटे तक बैठी अपनी आत्मा को तृप्त करती रही. प्रतिक्षण उसके हृदय पर ममत्व का नशा-सा छाया जा रहा था. जब वह उस कोठरी से निकली, तो उसके मन के संस्कार बदल गये थे, मानो किसी ने उस पर मंत्र डाल दिया हो.


उसी समय द्वार पर किसी ने आवाज दी. उसने तुरंत भंडारे का द्वार बंद किया और जाकर सदर दरवाजा खोल दिया. देखा तो पड़ोसिन झुनिया खड़ी है और एक रूपया उधार मांग रही है.

रामप्यारी ने रूखाई से कहा- अभी तो एक पैसा घर में नहीं है जीजी, क्रिया-कर्म में सब खरच हो गया.


झुनिया चकरा गयी. चौधरी के घर में इस समय एक रूपया भी नहीं है, यह विश्वास करने की बात न थी. जिसके यहां सैकड़ों का लेन-देन है, वह सब कुछ क्रिया-कर्म में नहीं खर्च कर सकता. अगर शिवदास ने बहाना किया होता, तो उसे आश्चर्य न होता. प्यारी तो अपने सरल स्वभाव के लिए गांव में मशहूर थी. अकसर शिवदास की आंखें बचाकर पड़ोसियों को इच्छित वस्तुएं दे दिया करती थी. अभी कल ही उसने जानकी को सेर-भर दूध दिया. यहां तक कि अपने गहने तक मांगे दे देती थी. कृपण शिवदास के घर में ऐसी सखरज बहू का आना गांव वाले अपने सौभाग्य की बात समझते थे.


झुनिया ने चकित होकर कहा- ऐसा न कहो जीजी, बड़े गाढ़े में पड़कर आयी हूं, नहीं तुम जानती हो, मेरी आदत ऐसी नहीं है. बाकी का एक रूपया देना है. प्यादा द्वार पर खड़ा बकझक कर रहा है. रूपया दे दो, तो किसी तरह यह विपत्ति टले. मैं आज के आठवें दिन आकर दे जाऊंगी. गांव में और कौन घर है, जहां मांगने जाऊं?


प्यारी टस से मस न हुई.


उसके जाते ही प्यारी सांझ के लिए रसोई-पानी का इंतजाम करने लगी. पहले चावल-दाल बिनना अपाढ़ लगता था और रसोई में जाना तो सूली पर चढ़ने से कम न था. कुछ देर बहनों में झांव-झांव होती, तब शिवदास आकर कहते, क्या आज रसोई न बनेगी, तो दो में से एक उठती और मोटे- मोटे टिक्कड़ लगाकर रख देती, मानो बैलों का रातिब हो. आज प्यारी तन-मन से रसोई के प्रबंध में लगी हुई है. अब वह घर की स्वामिनी है.


तब उसने बाहर निकलकर देखा, कितना कूड़ा-करकट पड़ा हुआ है! बुढ़ऊ दिन-भर मक्खी मारा करते हैं. इतना भी नहीं होता कि जरा झाड़ू ही लगा दें. अब क्या इनसे इतना भी न होगा? द्वार चिकना होना चाहिए कि देखकर आदमी का मन प्रसन्न हो जाय. यह नहीं कि उबकाई आने लगे. अभी कह दूं, तो तिनक उठें. अच्छा, मुन्नी नांद से अलग क्यों खड़ी है?


उसने मुन्नी के पास जाकर नांद में झांका. दुर्गन्ध आ रही थी. ठीक! मालूम होता है, महीनों से पानी ही नहीं बदला गया. इस तरह तो गाय रह चुकी. अपना पेट भर लिया, छुट्टी हुई, और किसी से क्या मतलब? हां, दूध सबको अच्छा लगता है. दादा द्वार पर बैठे चिलम पी रहे हैं, मगर इतना नहीं होता कि चार घड़ा पानी नांद में डाल दें. मजूर रखा है वह भी तीन कौड़ी का. खाने को डेढ़ सेर; काम करते नानी मरती है. आज आता है तो पूछती हूं, नांद में पानी क्यों नहीं बदला. रहना हो, रहे या जाय. आदमी बहुत मिलेंगे. चारों ओर तो लोग मारे-मारे फिर रहे हैं.


आखिर उससे न रहा गया. घड़ा उठाकर पानी लाने चली.


शिवदास ने पुकारा- पानी क्या होगा बहू?  इसमें पानी भरा हुआ है.


प्यारी ने कहा- नांद का पानी सड़ गया है. मुन्नी भूसे में मुंह नहीं डालती. देखते नहीं हो, कोस-भर पर खड़ी है.


शिवदास मार्मिक भाव से मुसकराये और आकर बहू के हाथ से घड़ा ले लिया.

(शेष अगले अंक में……)

प्रेमचंद की कहानी

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