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(कहानी सम्राट मुंशी प्रेमचंद की कहानियों की श्रृंखला में आज पेश है उनकी प्रसिद्ध रचना ‘बड़े घर की बेटी’. प्रेमचंद के उपन्यास और कहानियों में किसान, मजदूर और वर्ग में बंटे समाज का दर्द उभरता है. उनकी कहानियों की एक बड़ी विशेषता महिला चरित्र का चित्रण भी रहा है. प्रेमचंद की पारिवारिक स्थिति हमेशा दुखदाई रही लेकिन अपनी पत्नी की भूमिका को उन्होंने हमेशा माना. अपनी कहानियों और उपन्यासों में भी उन्होंने महिलाओं का चरित्र-चित्रण बहुत प्रभावशाली ढंग से किया है. भारतीय समाज में एक परिवार को जोड़े रखने में स्त्री की क्या भूमिका होती है, उनकी कहानियों में दिखता है. बड़े घर की बेटी भी उनकी ऐसी ही एक कहानी है. उम्मीद है पाठकों को पसंद आएगी. कहानी पर आपकीबहुमूल्य प्रतिक्रया का हमें इंतजार रहेगा.)
गतांक से आगे (अंतिम कड़ी)……
श्रीकंठ सिंह शनिवार को घर आया करते थे. वृहस्पति को यह घटना हुई थी. दो दिन तक आनंदी कोप-भवन में रही. न कुछ खाया न पिया, उनकी बाट देखती रही. अंत में शनिवार को वह नियमानुकूल संध्या समय घर आये और बाहर बैठ कर कुछ इधर-उधर की बातें, कुछ देश-काल संबंधी समाचार तथा कुछ नये मुकदमों आदि की चर्चा करने लगे. यह वार्तालाप दस बजे रात तक होता रहा. गॉँव के भद्र पुरुषों को इन बातों में ऐसा आनंद मिलता था कि खाने-पीने की भी सुधि न रहती थी. श्रीकंठ को पिंड छुड़ाना मुश्किल हो जाता था. ये दो-तीन घंटे आनंदी ने बड़े कष्ट से काटे! किसी तरह भोजन का समय आया. पंचायत उठी. एकांत हुआ, तो लालबिहारी ने कहा–भैया, आप जरा भाभी को समझा दीजिएगा कि मुँह सँभाल कर बातचीत किया करें, नहीं तो एक दिन अनर्थ हो जायगा.
बेनीमाधव सिंह ने बेटे की ओर साक्षी दी–हॉँ, बहू-बेटियों का यह स्वभाव अच्छा नहीं कि मर्दों के मूँह लगें.
लालबिहारी–वह बड़े घर की बेटी हैं, तो हम भी कोई कुर्मी-कहार नहीं है. श्रीकंठ ने चिंतित स्वर से पूछा–आखिर बात क्या हुई?
लालबिहारी ने कहा–कुछ भी नहीं; यों ही आप ही आप उलझ पड़ीं. मैके के सामने हम लोगों को कुछ समझती ही नहीं.
श्रीकंठ खा-पीकर आनंदी के पास गये. वह भरी बैठी थी. यह हजरत भी कुछ तीखे थे. आनंदी ने पूछा–चित्त तो प्रसन्न है.
श्रीकंठ बोले–बहुत प्रसन्न है; पर तुमने आजकल घर में यह क्या उपद्रव मचा रखा है?
आनंदी की त्योरियों पर बल पड़ गये, झुँझलाहट के मारे बदन में ज्वाला-सी दहक उठी. बोली–जिसने तुमसे यह आग लगायी है, उसे पाऊँ, मुँह झुलस दूँ.
श्रीकंठ–इतनी गरम क्यों होती हो, बात तो कहो.
आनंदी–क्या कहूँ, यह मेरे भाग्य का फेर है ! नहीं तो गँवार छोकरा, जिसको चपरासगिरी करने का भी शऊर नहीं, मुझे खड़ाऊँ से मार कर यों न अकड़ता.
श्रीकंठ–सब हाल साफ-साफ कहा, तो मालूम हो. मुझे तो कुछ पता नहीं.
आनंदी–परसों तुम्हारे लाड़ले भाई ने मुझसे मांस पकाने को कहा. घी हॉँडी में पाव-भर से अधिक न था. वह सब मैंने मांस में डाल दिया. जब खाने बैठा तो कहने लगा–दल में घी क्यों नहीं है? बस, इसी पर मेरे मैके को बुरा-भला कहने लगा–मुझसे न रहा गया. मैंने कहा कि वहॉँ इतना घी तो नाई-कहार खा जाते हैं, और किसी को जान भी नहीं पड़ता. बस इतनी सी बात पर इस अन्यायी ने मुझ पर खड़ाऊँ फेंक मारी. यदि हाथ से न रोक लूँ, तो सिर फट जाय. उसी से पूछो, मैंने जो कुछ कहा है, वह सच है या झूठ.
श्रीकंठ की ऑंखें लाल हो गयीं. बोले–यहॉँ तक हो गया, इस छोकरे का यह साहस ! आनंदी स्त्रियों के स्वभावानुसार रोने लगी; क्योंकि ऑंसू उनकी पलकों पर रहते हैं. श्रीकंठ बड़े धैर्यवान् और शांति पुरुष थे. उन्हें कदाचित् ही कभी क्रोध आता था; स्त्रियों के ऑंसू पुरुष की क्रोधाग्नि भड़काने में तेल का काम देते हैं. रात भर करवटें बदलते रहे. उद्विग्नता के कारण पलक तक नहीं झपकी. प्रात:काल अपने बाप के पास जाकर बोले–दादा, अब इस घर में मेरा निबाह न होगा.
इस तरह की विद्रोह-पूर्ण बातें कहने पर श्रीकंठ ने कितनी ही बार अपने कई मित्रों को आड़े हाथों लिया था; परन्तु दुर्भाग्य, आज उन्हें स्वयं वे ही बातें अपने मुँह से कहनी पड़ी ! दूसरों को उपदेश देना भी कितना सहज है!
बेनीमाधव सिंह घबरा उठे और बोले–क्यों?
श्रीकंठ–इसलिए कि मुझे भी अपनी मान–प्रतिष्ठा का कुछ विचार है. आपके घर में अब अन्याय और हठ का प्रकोप हो रहा है. जिनको बड़ों का आदर–सम्मान करना चाहिए, वे उनके सिर चढ़ते हैं. मैं दूसरे का नौकर ठहरा घर पर रहता नहीं. यहॉँ मेरे पीछे स्त्रियों पर खड़ाऊँ और जूतों की बौछारें होती हैं. कड़ी बात तक चिन्ता नहीं. कोई एक की दो कह ले, वहॉँ तक मैं सह सकता हूँ किन्तु यह कदापि नहीं हो सकता कि मेरे ऊपर लात-घूँसे पड़ें और मैं दम न मारुँ.
बेनीमाधव सिंह कुछ जवाब न दे सके. श्रीकंठ सदैव उनका आदर करते थे. उनके ऐसे तेवर देखकर बूढ़ा ठाकुर अवाक् रह गया. केवल इतना ही बोला–बेटा, तुम बुद्धिमान होकर ऐसी बातें करते हो? स्त्रियॉं इस तरह घर का नाश कर देती है. उनको बहुत सिर चढ़ाना अच्छा नहीं.
श्रीकंठ–इतना मैं जानता हूँ, आपके आशीर्वाद से ऐसा मूर्ख नहीं हूँ. आप स्वयं जानते हैं कि मेरे ही समझाने-बुझाने से, इसी गॉँव में कई घर सँभल गये, पर जिस स्त्री की मान-प्रतिष्ठा का ईश्वर के दरबार में उत्तरदाता हूँ, उसके प्रति ऐसा घोर अन्याय और पशुवत् व्यवहार मुझे असह्य है. आप सच मानिए, मेरे लिए यही कुछ कम नहीं है कि लालबिहारी को कुछ दंड नहीं होता.
अब बेनीमाधव सिंह भी गरमाये. ऐसी बातें और न सुन सके. बोले–लालबिहारी तुम्हारा भाई है. उससे जब कभी भूल–चूक हो, उसके कान पकड़ो लेकिन.
श्रीकंठ—लालबिहारी को मैं अब अपना भाई नहीं समझता.
बेनीमाधव सिंह–स्त्री के पीछे?
श्रीकंठ—जी नहीं, उसकी क्रूरता और अविवेक के कारण.
दोनों कुछ देर चुप रहे. ठाकुर साहब लड़के का क्रोध शांत करना चाहते थे, लेकिन यह नहीं स्वीकार करना चाहते थे कि लालबिहारी ने कोई अनुचित काम किया है. इसी बीच में गॉँव के और कई सज्जन हुक्के-चिलम के बहाने वहॉँ आ बैठे. कई स्त्रियों ने जब यह सुना कि श्रीकंठ पत्नी के पीछे पिता से लड़ने की तैयार हैं, तो उन्हें बड़ा हर्ष हुआ. दोनों पक्षों की मधुर वाणियॉँ सुनने के लिए उनकी आत्माऍं तिलमिलाने लगीं. गॉँव में कुछ ऐसे कुटिल मनुष्य भी थे, जो इस कुल की नीतिपूर्ण गति पर मन ही मन जलते थे. वे कहा करते थे—श्रीकंठ अपने बाप से दबता है, इसीलिए वह दब्बू है. उसने विद्या पढ़ी, इसलिए वह किताबों का कीड़ा है. बेनीमाधव सिंह उसकी सलाह के बिना कोई काम नहीं करते, यह उनकी मूर्खता है. इन महानुभावों की शुभकामनाऍं आज पूरी होती दिखायी दीं. कोई हुक्का पीने के बहाने और कोई लगान की रसीद दिखाने आ कर बैठ गया. बेनीमाधव सिंह पुराने आदमी थे. इन भावों को ताड़ गये. उन्होंने निश्चय किया चाहे कुछ ही क्यों न हो, इन द्रोहियों को ताली बजाने का अवसर न दूँगा. तुरंत कोमल शब्दों में बोले–बेटा, मैं तुमसे बाहर नहीं हूँ. तम्हारा जो जी चाहे करो, अब तो लड़के से अपराध हो गया.
इलाहाबाद का अनुभव-रहित झल्लाया हुआ ग्रेजुएट इस बात को न समझ सका. उसे डिबेटिंग-क्लब में अपनी बात पर अड़ने की आदत थी, इन हथकंडों की उसे क्या खबर? बाप ने जिस मतलब से बात पलटी थी, वह उसकी समझ में न आया. बोला—लालबिहारी के साथ अब इस घर में नहीं रह सकता.
बेनीमाधव—बेटा, बुद्धिमान लोग मूर्खों की बात पर ध्यान नहीं देते. वह बेसमझ लड़का है. उससे जो कुछ भूल हुई, उसे तुम बड़े होकर क्षमा करो.
श्रीकंठ—उसकी इस दुष्टता को मैं कदापि नहीं सह सकता. या तो वही घर में रहेगा, या मैं ही. आपको यदि वह अधिक प्यारा है, तो मुझे विदा कीजिए, मैं अपना भार आप सॅंभाल लूँगा. यदि मुझे रखना चाहते हैं तो उससे कहिए, जहॉँ चाहे चला जाय. बस यह मेरा अंतिम निश्चय है.
लालबिहारी सिंह दरवाजे की चौखट पर चुपचाप खड़ा बड़े भाई की बातें सुन रहा था. वह उनका बहुत आदर करता था. उसे कभी इतना साहस न हुआ था कि श्रीकंठ के सामने चारपाई पर बैठ जाय, हुक्का पी ले या पान खा ले. बाप का भी वह इतना मान न करता था. श्रीकंठ का भी उस पर हार्दिक स्नेह था. अपने होश में उन्होंने कभी उसे घुड़का तक न था. जब वह इलाहाबाद से आते, तो उसके लिए कोई न कोई वस्तु अवश्य लाते. मुगदर की जोड़ी उन्होंने ही बनवा दी थी. पिछले साल जब उसने अपने से ड्यौढ़े जवान को नागपंचमी के दिन दंगल में पछाड़ दिया, तो उन्होंने पुलकित होकर अखाड़े में ही जा कर उसे गले लगा लिया था, पॉँच रुपये के पैसे लुटाये थे.
ऐसे भाई के मुँह से आज ऐसी हृदय-विदारक बात सुनकर लालबिहारी को बड़ी ग्लानि हुई. वह फूट-फूट कर रोने लगा. इसमें संदेह नहीं कि अपने किये पर पछता रहा था. भाई के आने से एक दिन पहले से उसकी छाती धड़कती थी कि देखूँ भैया क्या कहते हैं. मैं उनके सम्मुख कैसे जाऊँगा, उनसे कैसे बोलूँगा, मेरी ऑंखें उनके सामने कैसे उठेगी. उसने समझा था कि भैया मुझे बुलाकर समझा देंगे. इस आशा के विपरीत आज उसने उन्हें निर्दयता की मूर्ति बने हुए पाया. वह मूर्ख था. परंतु उसका मन कहता था कि भैया मेरे साथ अन्याय कर रहे हैं. यदि श्रीकंठ उसे अकेले में बुलाकर दो-चार बातें कह देते; इतना ही नहीं दो-चार तमाचे भी लगा देते तो कदाचित् उसे इतना दु:ख न होता; पर भाई का यह कहना कि अब मैं इसकी सूरत नहीं देखना चाहता, लालबिहारी से सहा न गया ! वह रोता हुआ घर आया.
कोठारी में जा कर कपड़े पहने, ऑंखें पोंछी, जिसमें कोई यह न समझे कि रोता था. तब आनंदी के द्वार पर आकर बोला—भाभी, भैया ने निश्चय किया है कि वह मेरे साथ इस घर में न रहेंगे. अब वह मेरा मुँह नहीं देखना चाहते; इसलिए अब मैं जाता हूँ. उन्हें फिर मुँह न दिखाऊँगा ! मुझसे जो कुछ अपराध हुआ, उसे क्षमा करना.
यह कहते-कहते लालबिहारी का गला भर आया.
प्रेमचंद की कहानी
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