Menu
blogid : 2262 postid : 254

जयशंकर प्रसाद की प्रेम कहानी : उर्वशी

कहानियां
कहानियां
  • 120 Posts
  • 28 Comments

ऐसे रमणीक उद्यान-प्रदेश के घने कानन में एक छोटी-सी पहाड़ी पर खड़ा एक तेजस्वी युवक वनस्थली की सान्ध्य शोभा देख रहा है। सूर्य की सुनहली किरणें उसके मणि-मण्डित किरीट और स्वर्ण कवच पर रह-रहकर चमक उठती हैं। मृगया से थके हुए युवक को, चीड़ के बड़े वृक्षों की घनी छाया में आये अभी देर नहीं हुई है। उसके काले बालों के लच्छे अभी श्रमविन्दु बहा रहे हैं। युवक बार-बार बालों को विशाल भाल से हटाता हुआ श्रमविन्दु पोंछ रहा है। ढीली प्रत्यञ्चा करके धनुष को एक वृक्ष से टिका दिया है। थोड़ी दूर पर एक प्रकाण्ड अश्व हरी-हरी दूब चर रहा है। अकस्मात् रमणी-कण्ठ की क्रन्दन-ध्वनि सुन पड़ी। सुनते ही आर्त-त्राण-परायण आर्य युवक का हृदय वेग से भर उठा। युवक उसी शब्द की ओर चलते हुए बोला-‘सुग्रीव’। संकेत सुनते ही अश्व भी पीछे चला।


Jaishankar Prasad Story In Hindi

कुछ दूर जाने पर देखा, झरने के किनारे एक सुन्दरी-

युवक उस नैसर्गिक सौन्दर्य-सागर से तटस्थ नहीं रह सका। समीप जाकर पूछा-”शुभे! यहाँ कोई पीड़ित स्त्री थी? जिसका क्रन्दन सुनकर मैं यहाँ आया हूँ।”

सुन्दरी ने सरल भाव से कहा-”भद्र! यहाँ तो और कोई नहीं है। मैं ही यहाँ पर कुछ घना कानन देख कर छाया सेवन कर रही थी। छाया में मुझे व्यक्ति का भ्रम हुआ। स्त्रीजन-सुलभ भय से आक्रान्त होकर मैं ही चीख उठी थी। क्षमा कीजिए, आपको कष्ट हुआ। आपके आने से रहा-सहा भय भी दूर हुआ।’-इतना कहकर युवती ने युवक की शौर्य-व्यञ्जक मधुर मूर्ति को निर्निमेष देख कर एक स्मित कटाक्ष किया।

युवक ने विचलित होकर कहा-”अच्छा, अब मैं जाता हूँ।”


Jaishankar Prasad: Romantic Kahaniya

उद्यान-देश की रमणीक शैल-माला, आय्र्यावर्त की उत्तर-सीमा के फल-फूल से लदे हुए कानन की शोभा, किस नेत्र को चकित नहीं करती। मृगयाविहारी युवक राजा पुरुरवा मुग्ध होकर एक शिलाखण्ड पर बैठे हुए वनश्री देख रहे हैं। मृगशावकों के समीप आ जाने पर भी भयानक धनुष की प्रत्यञ्चा ढीली पड़ी है।


चन्द्रोदय हुआ। फिर वही सुन्दरी, वनदेवी की तरह मन्थर गति से उसी झरने के समीप आई, जहाँ पुरुरवा बैठे हैं। अब सुन्दरी के हाथ में एक छोटी-सी वीणा भी है। साथ में दो सुन्दर मेषशावक भी हैं, जो कभी उस युवती के आगे, कभी पीछे, कभी उसके चीनांशुक को खींचकर प्रेम जता रहे हैं। दोनों परस्पर सौन्दर्य का अनुभव करने लगे।


Jaishankar Prasad:Kahaniya

शान्त सन्ध्या, निर्जन प्रदेश; प्रकृति की सलोनी छटा और तिस पर दो उद्वेगपूर्ण हृदय! भला कैसे स्थिर रह सकते हैं? सुन्दरी ने चञ्चल पवन से आन्दोलित अपने वसनों को सम्हालते हुए कहा-”भद्र! यदि आप थोड़ी देर के लिए मेरे प्यारे मेष-शावकों को सम्हालें, तो मैं अपना वसन सम्हाल लूँ, फिर इन्हें जल पिला दूँ। अहा! मेरे बच्चे प्यासे हैं। मैं आपकी अनुगृहीत हूँगी। उहँ, इस पवन ने तो मुझे और भी व्यस्त कर रखा है।”सुन्दरी ने इस स्वतन्त्रता से अपने ये असंयत वाक्य कहे कि युवक-हृदय स्पन्दित हो चला। पुरुरवा ने सोचा कि इस युवती का कैसा प्रगल्भ और पूर्ण व्यवहार है? घृणित संकोच छू नहीं गया है। क्षणिक विचार ने पुरुरवा को संसार भर की रमणियों के सामने उस सुन्दरी को उत्तम प्रमाणित कर दिया, और एकाएक वह नवीन हृदय-प्रगल्भा रमणी के रूप और भाव से भर गया। युवक ने मन्त्र-मुग्ध होकर कहा-”सुन्दरी! तुम्हारी इस आज्ञा को मैं सहर्ष स्वीकार करता हूँ।”


विजयिनी ने हँसकर कहा-”हमने इन दोनों को बच्चों की तरह पाला है। क्या मनुष्य ही के बच्चे सुन्दर होते हैं? क्या ये प्यार करने के योग्य नहीं हैं? हमारे देश के सब मेषशावक ऐसे ही कोमल और सुन्दर होते हैं।”

पुरुरवा ने आग्रह से एक मेषशावक को गोद में बैठा लिया। शिला-खण्ड पर वीणा रखकर सुन्दरी दूसरे को जल पिलाने लगी। सुन्दरी ने पुरुरवा पर क्षण-भर में अधिकार कर लिया।


Jaishankar Prasad:Kahaniya

पुरुरवा ने कहा-”सुन्दरी! तुम्हारा परिचय प्राप्त करने के लिए चित्त चञ्चल हो रहा है।”

रमणी ने कहा-”चित्त चिर चञ्चल है। उसी की गति रोकने के लिए गन्धर्व देश से चलकर सीमा कानन में चली आई हूँ। मैं गन्धर्व-कुमारी हूँ। मुझे लोग अप्सरा उर्वशी कहते हैं।”


मेषशावक जल पी चुके थे। गन्धर्वकुमारी पुरुरवा के समीप ही शिला-खण्ड पर बैठ गयी। अकृत्रिम विभ्रम से उसने कहना आरम्भ किया-”सुन्दर युवक, क्या तुम्हीं इस देश के राजा हो? जैसा कि तुम्हारा यह मणि-जटित धनुष और स्वर्ण-किरीट बतला रहा है। मैंने अपने देश में सुना था कि आर्यावर्त के राजकुमारों में पुरुरवा-सा बलशाली और सुन्दर कोई नहीं है। क्या तुम्हारी मुखश्री तुम्हारे पुरुरवा होने में सन्देह दिलाती है? नहीं। मैंने सोचा था कि तुम्हें देखने के लिए शैलमाला से उतरकर दूर जाना पड़ेगा; पर तुम मुझे यहीं मिले। सचमुच तुम्हें देखने के लिए परिश्रम करना व्यर्थ न था। सुन्दर राजकुमार! मेवों से लदे हुए, फूलों से खिले हुए गन्धर्वदेश के कानन में वीणा बजाते हुए, मुझे ऐसा ध्यान होता था कि मेरे जन्म का उद्देश्य हृदय की प्रबल वासना की तृप्ति आर्यावर्त के किसी प्रान्त में है। प्रिय! कहो, बोलो, मेरी शंका दूर करो! नहीं न करना।”


Jaishankar Prasad Story

पुरुरवा-”गन्धर्वकुमारी! तुमने ठीक सोचा। मैं ही पुरुरवा हूँ। मृगया के लिए अपनी उत्तर-पश्चिम सीमा के कानन में चला आया हूँ। किन्तु सुन्दरी, तुम अकेली क्यों हो? कैसे यहाँ आ गयी?”


”राजन! मेरा देश, प्रकृति का रमणीय उद्यान है। मैं उसमें वीणा बजाती हुई स्वतन्त्र घूमा करती हूँ। देश के राजा का दौरात्म्य बढ़ा देखकर और तुम्हारी रूप-कथा सुनकर, मुझे इधर चले आने का साहस हुआ! राजन! क्या मैं सामान्य नर्तकी होने योग्य हूँ? मैं क्या दूसरों के विलास की सामग्री बनूँगी? क्या मेरे हृदय में अपना कुछ नहीं है? क्या वह दूसरों से कम है?”-कहते-कहते उर्वशी के मुख पर भीषण सुन्दरता झलकने लगी।


पुरुरवा-”क्या तुम दुस्तर शैल-मार्ग में भयभीत नहीं हुई।”

उर्वशी-”राजकुमार! स्त्रियों को भय कहाँ। उस समय मेरा क्रन्दन अपरिचित होने के कारण तुम्हें बुलाने का बहाना था। और हमारे यहाँ के द्राक्षा में रस अधिक होता है। रस में मा दकता बड़ी तीव्र होती है। और मैं जिसे अपने हाथ से देने लगूँ, वह जब तक बोलने की सामथ्र्य रहे, नहीं नहीं कर सकता। समझे।”


Jaishankar Prasad:Kahaniya

पुरुरवा ने देखा ‘भयानक सौन्दर्य’, हृदय अब नहीं सम्हल सकता। व्याकुल होकर कहा-”सुन्दरी! क्या मेरी सेवा स्वीकार होगी?”

युवती अब पूर्ण विजय पा चुकी थी। अब उसकी परीक्षा और भोग का समय आया। हँसकर बोली-”राजन् , स्मरण रहे कि मेरी स्वतन्त्रता नहीं छीनी जा सकती। तुम्हारा विस्तृत राज्य है। मेरी इच्छा तुम्हें देखने की थी, सो देख लिया। देखो, तुम्हारा भयानक धनुष किसी काम का नहीं। अब तुम्हारे ऊपर दया आती है। जाओ, अप्सरी के फेर में मत पड़ो। मैं भी तुम्हारे रूप और शील का गीत वीणा पर गाती और बजाती हुई चली जाऊँगी।”


पुरुरवा ने व्यग्र होकर कहा-”प्रिये! अब दया की आवश्यकता नहीं। अब तुम्हारा साथ मैं नहीं छोड़ सकता।”

उर्वशी ने इस बात को अनसुनी करके गाना आरम्भ कर दिया। वीणा बजने लगी।

आकाश के झरोखे से अन्धकार का पर्दा हटाकर सुरसुन्दरियों की तरह तारागण झांकने लगे कि चन्द्रमा आज क्यों इतना हँस रहा है?

मरीचिमाली अपनी स्वर्णमयी धाराओं से धरा को सींचने लगे हैं। सुखद समीर अपनी मन्थर गति से गिरिशृंगों तथा वृक्षों पर पड़ती हुई भुवनभास्कर की किरणों को विचलित करने का उद्योग कर रहा है। कुसुमित डालों पर बैठे हुए पक्षीगण अपने मृदुल कण्ठ से प्रभात का यशोगान कर रहे हैं।


Jaishankar Prasad:Kahaniya

नवयौवन, नवीन समागम में पुलकित, भोग में डूबे हुए, विलास-सागर में तैरते हुए, एक-दूसरे के सहारे झरना के तट पर बैठे हुए पुरुरवा और उर्वशी हँसती हुई सृष्टि का आनन्द ले रहे हैं। उर्वशी के सामने चुने हुए फूलों का ढेर है। पुरुरवा उसे उठाकर देते हैं, वह उन फूलों से एक सुन्दर माला गूँथ रही है। माला बनने पर उर्वशी ने उसे पुरुरवा को पहना दिया। प्रसन्नता करते हुए उन्होंने उस माला को उर्वशी के गले में पहनाना चाहा, किन्तु उसने पहनने में अपनी अनिच्छा प्रकट की। पुरुरवा विरक्त हुए। कभी कुञ्जों में, कभी शृंगों पर, कभी झरने पर, वर्षा, शरद् और वसन्त की मनोहर रात्रियों में उर्वशी का कुसुम श्रृंगार करते हुए पुरुरवा ने बरसों बिता दिये। आज तक दोनों की इच्छा एक थी। एक के चित्त में किसी कार्य करने की प्रेरणा होती, जो दूसरे के मनोनीत होता। उसी एकाग्र वृत्ति में ठोकर लगने का यह पहला अवसर है। फिर भी पुरुरवा ने कहा-”प्रिये! यह माला तुम्हारे गले में बड़ी सुन्दर मालूम होगी, पहिन क्यों नहीं लेती हो?”


उर्वशी ने कहा-”वस्तु के सुन्दर होने ही से हम उसे गले लगाने को बाध्य नहीं हैं।”

पुरुरवा ने उत्तेजित होकर कहा-”तो फिर हम इसे नदी में फेंक देते हैं। जब तुम्हें पहनना ही नहीं था तो इतने परिश्रम से माला बनाने की क्या आवश्यकता थी?”

उर्वशी ने हँसकर कहा-”फूँलों को सुन्दर देखकर इकठ्ठा किया। उनका उपयोग करने के लिए माला बनाई। फिर ध्यान में आया कि माला टिकाऊ नहीं है। फूल छूने से कुम्हिलाते हैं, उनमें कीट होते हैं, उसे मैं पहनकर क्या करूँगी। तुम्हें पहना दिया, क्योंकि फूल डाल में ही अच्छे मालूम होते हैं।”


Jaishankar Prasad:Kahaniya

पुरुरवा अप्रतिभ-से हो गये। उनका वह सब सुन्दर लीलामय भाव तिरोहित हो चला। उर्वशी यह देखकर हँसी और उसने माला लेकर अपने गले में पहन ली। क्षणिक कलह के बाद प्रेम का नूतन संस्करण उन्हें बड़ा मनोरम मालूम होने लगा।


मनोहर गुफा पहाड़ी में प्रेमी की तरह हृदय खोले बैठी है। द्राक्षा की लता उसे घेरे है। शिल्पी के हाथों से बने हुए चित्रित रंगमहल में भी वर्षा का ऐसा सुख नहीं मिल सकता, जैसा कि यह पार्वतीय गुफा दे रही है। पुरुरवा एकटक उस पार्वतीय पावस की शोभा देख रहे हैं। हृदय कुछ अनमना है। उर्वशी के हाथ में वीणा है, जो सुरीली बज रही है। और उर्वशी की कोकिल-कण्ठ-ध्वनि भी उससे मिलकर अपूर्व समां बाँध रही है।


अकस्मात् गन्धर्व-कुमारी चौंक पड़ी। वीणा उसके हाथ से छूट पड़ी। पुरुरवा ने देखा, तो सामने एक गन्धर्व युवक चला आ रहा है! युवक के हृदय का वेग उसके मुख पर लक्षित हो रहा है। युवक सीधा उर्वशी के सामने आकर खड़ा हो गया, और पर्णसम्पुट में से एक वन्यकुसुम की माला निकाल, बिना रुके हुए उर्वशी को पहना दी, और बोला-”आह! उर्वशी! कितने दिनों पर तुम्हें देख पाया। ऐसी मालाएँ मैं कहाँ नित्य तुम्हें पहनाता था, कहाँ तुम्हें खोजते-खोजते मेरे पैरों में छाले पड़ गये। निर्दय! आज की माला बड़े चाव की वन-फूलों से बनी हुई तुम्हें अर्पण करता हूँ। क्या यह स्वीकार होगी।”


Jaishankar Prasad:Kahaniya

पुरुरवा ने प्रिया के नीलेन्दीवर नेत्रों को तामरस रूप धारण करते हुए देखकर अपमान समझा। उसी क्षण तड़िल्लता के समान असि को कोशधन से बाहर करके कड़ककर कहा-”अबोध युवक! तू कौन है जो अपनी मृत्यु को आप ही बुलाता है?”

उर्वशी की ओर देखते हुए हँसकर युवक गन्धर्व ने कहा-”आह! क्या आप ही यमराज हैं? इतना क्रोध करने का कारण क्या है?”

पुरुरवा ने कहा-”तुम्हें माला पहनाने का क्या अधिकार था? क्या यह तुमने रमणी का अपमान नहीं किया?”

युवक ने कहा-”फूलों की माला से तो उर्वशी को मूच्र्छा नहीं आ सकती। और मैं तो ऐसी माला नित्य पहनाता था। क्यों उर्वशी! क्या इसमें तुम्हारा अपमान हुआ?”


उर्वशी से इस तरह बातें करते हुए देखकर पुरुरवा अपने क्रोध को संवरण नहीं कर सके। ”सावधान” कहते हुए असि-प्रहारोद्यत हो गये। युवा भी सृदृढ़ हस्त में असि ग्रहण करके युद्ध में सन्नद्ध हुआ। घात-प्रत्याघात होने लगे।

भरे क्रोध जल जलद युग, भिरत करत आघात;

बिज्जुलता सी असि युगल, लपटि-लपटि छुटि जात।


Jaishankar Prasad:Kahaniya

आर्यवीर के प्रबल हाथों का वेग गन्धर्वयुवक सहन नहीं कर सका। कन्धे पर गहरा हाथ बैठने पर वह गिर पड़ा। उर्वशी से अब नहीं रहा गया। ”बेचारा केयूरक!” कहकर उसे उठाने लगी। तलवार पोंछते हुए पुरुरवा विरक्त होकर वहाँ से चल पड़े। शीघ्रता के कारण समीप के मेषशावक का ध्यान न रहा। पैर से उसकी पूँछ दब गयी। शावक चिल्ला उठा। कुछ ध्यान न करके पुरुरवा चले गये। गन्धर्वबाला का उन्नत हृदय तीव्रतर हो गया। वह केयूरक का घाव धोने लगी।


पुरुरवा को शैल-शिलाएँ कोमल या कठोर नहीं मालूम होती हैं। जिधर पैर उठता है, उधर चले जा रहे हैं। मेघमण्डली-मण्डित एक ऊँचे शृंग पर, जहाँ से इन्द्रधनुष निकला हुआ है, एक सुन्दरी का सजीव चित्र दिखाई पड़ा। धीरे-धीरे उसकी स्वर-लहरी गूँजने लगी-

पुरुरवा का हृदय कुछ नरम हो चला। वे पलटे। देखा तो अपने पार्वतीय प्रकोष्ठ में गन्धर्व-कुमारी बैठी है। उसका कौशेय वसन अस्त-व्यस्त है। कुन्तल बिखरे हुए हैं। पुरुरवा पास बैठकर उसे सुलझाने लगे।


आज द्राक्षा-मण्डप में गन्धर्वबाला पुष्पाभरण-भूषिता होकर बैठी है। हाथ में छोटी वीणा है। केयूरक के घाव अच्छे हो चले हैं। वह भी सामने बैठा है। उर्वशी की ओर देख कर निश्वास लेकर बोला-”प्रिये! शैशव-सहचर को क्या तुम ऐसा भूल जाओगी? क्या तुम्हें कुछ दया नहीं है?”


Jaishankar Prasad:Kahaniya

गीत बन्द हो चुका है ; किन्तु स्वरलहरी अभी गूँज रही है। निर्निमेष केयूरक और उर्वशी अन्योन्य देख रहे हैं। पुरुरवा ने वहाँ आकर इस नवीन लीला को देखा। केयूरक को देखते ही तलवार अपने कोश में झनझना उठी; पर हृदय ने उसे रोक दिया। पुरुरवा ने कहा-”उर्वशी! आज तो अद्‌भुत रूप है। और, सामान भी सब नये हैं। तुम्हारी यह छटा! युगल जोड़ी की मनोहर लीला दर्शनीय है।”


उर्वशी तनकर खड़ी हो गई। कहा-”हाँ राजकुमार! यह मेरा शैशव सहचर है। एक दिन मैं इसे चाहती थी। आज यह तुम्हारे हाथों से आहत हुआ है, तो क्या मैं इसकी थोड़ी-सी शुश्रुषा भी नहीं कर सकती। सैकड़ों बार इसने मेरे लिये अपने प्राणों की बाजी लगा दी है।” कहते-कहते उर्वशी का कण्ठ-स्वर सबल हो चला। फिर कर उसने केयूरक से कहा-”केयूरक, तुम यहाँ से हट जाओ।” मन्त्रमुग्ध की तरह केयूरक वहाँ से चला। पुरुरवा वहीं बैठ गये। उर्वशी भी थोड़ी देर में उठकर समीप के आराम में चली गई।


पुरुरवा उसी द्राक्षा-मण्डप में बैठे हैं। भयानक धनुष की प्रत्यञ्चा ढीली हो गई है, बेचारी की कौन खोज करे। पुरुरवा को अभी तक उर्वशी के बालों के सुलझाने से अवसर ही नहीं मिला। वर्षा की रात्रि ने अपना अधिकार धीरे-धीरे फैलाया। पुरुरवा के भीतर भी अन्धेरा है और बाहर भी; उन्हें परिणाम चिन्ताव्यग्र किये है। अप्सरा उर्वशी के फेर में पड़े हुए पुरुरवा को अब निकलना दुस्तर है। अभी तक वह इनकी वासना के प्रत्येक वेग को सरलता से एक ओर बहा देती थी। पुरुरवा को उनकी अवस्था सचेत कर रही है, फिर भी वे लाचार हैं। गर्वित-हृदय को एकाधिपत्य से वञ्चित होने का अनुभव होने लगा। फिर भी वे सुख की आशा में हृदय को सुखाने लगे। ज्यों-ज्यों अन्तरात्मा विरक्त होने लगी, अपने आनन्द में विश्वास घटने लगा। लालसा बढऩे लगी। अब उन्हें बंक भौंह वाली अप्सरा उर्वशी को अपने वश में रखने की उत्कण्ठा व्यग्र किये है। विचार करते-करते निशीथिनी और गाढ़ी नीलिमा में रंग गई।


Jaishankar Prasad:Kahaniya

अकस्मात् उर्वशी दौड़ी आई और बोली-”इस भीरु मनुष्य के भरोसे मैं मारी गई। अब मैं क्या करूँ?”

पुरुरवा उठ खड़े हुए और बोले-”बात क्या है? सुनूँ भी?”

उर्वशी ने कहा-”मेरे प्यारे बच्चे….।”

शीघ्रता से पुरुरवा बोले-”हाँ हाँ, तो उन्हें क्या हुआ?”

उर्वशी ने सिसकते हुए कहा-”गन्धर्व केयूरक दोनों को उठा ले गया।”

पुरुरवा ने पूछा-”वह किधर गया?”

उर्वशी ने जिधर संकेत किया, तलवार खींचकर पुरुरवा उधर ही चल पड़े।


Jaishankar Prasad:Kahaniya

उत्तरीय पर्वतों का प्रभात, ऊषा की अस्पष्ट मूर्ति, पुरुरवा के रमणीक विलास-कानन में आज कुछ अद्‌भुत प्रतीत होती है। चिन्ता-जागरण से उर्वशी की अलस-कलित छटा दर्शनीय है, प्रभात-कल्पा रजनी की तरह वह भी क्षीण-प्रभा हो रही है। फिर भी कभी-कभी आन्तरिक भावों से उसका मुख प्राची की तरह आरक्तिम हो जाता है।


अपनी वीणा बजाकर वह गाने लगी-

विपञ्ची स्वर में मोहित मृग की तरह पुरुरवा आ पहुँचे, उन्हें देखते ही उर्वशी ने पूछा-”मिले?”

उदास होकर धनुष और तूणीर फेंकते हुए पुरुरवा ने कहा-”अभी तक नहीं।”

अभी वे बैठे भी नहीं थे कि उर्वशी तमककर खड़ी हो गई, और बोली-”अच्छा, तो अब मैं ही जाती हूँ, केयूरक और अपने प्यारे बच्चों को खोज लूँगी?”


पुरुरवा ने कहा-”क्या मुझसे भी वे मेष-शावक प्यारे हैं? जो तुम उनके लिए मुझे छोड़कर चली जाओगी?”

उर्वशी ने दृढ़ होकर कहा-”मैं तो उन्हें देखे बिना नहीं रह सकती। अवश्य जाऊँगी।”

”समुझ लई सब बात, प्रेम नीति निबही भली।

और न कीजे घात, करी सुनी की ही करी।”


पुरुरवा ने गद्गद् कण्ठ से कहा-”क्या मेरे और तुम्हारे प्रेम का यही परिणाम था?”

पुरुरवा ने व्याकुल होकर-”क्या तुम्हें मेरे प्रेम का विश्वास नहीं? तीखी सुरा की तरह तुम्हारी चाह ”और लाओ” की पुकार मचा रही है, भला तुम्हारी तृप्ति कैसे हो?”


उर्वशी ने कहा-”तुम्हें धोखा हुआ, और मेरी भूल थी। मैंने समझा कि तुम्हें मनोनुकूल बना लूँगी और तुम्हें प्रेम का लालच था।”

पुरुरवा ने कहा-”गान्धर्व कुमारी! हमने तुम्हें बड़े प्यारे आधे गाये हुए गीत की तरह स्मरण किया है।”

उर्वशी ने तीखेपन से कहा-”उसे भूल जाओ।”


Jaishankar Prasad:Kahaniya

नि:श्वास लेते हुए पुरुरवा ने कहा-”जीवन की पहली गर्मी में तुम्हें हिमजल का पात्र समझा था।”

”वह भ्रम था”-उसी स्वर में उर्वशी ने कहा।


पुरुरवा ने उत्तेजित होकर कहा-”तो यह भ्रम सदा के लिए फैलेगा। कितनी कुमारी और कुमारों का इससे नाश होगा।”


उर्वशी और तन गई और बोली-”यह तो होवेगा ही। मैं तो पहले ही कह चुकी हूँ कि मैं स्वतन्त्र हूँ। इसी स्वतन्त्रता को छीनने के लिए आगे चलकर अनेक कठोर नियम बनेंगे, बड़े-बड़े प्रलोभन और बड़ी-बड़ी धमकियाँ होंगी, फिर भी यह हमारा दल बना रहेगा और स्वतन्त्र रहेगा। मैं भी स्वतन्त्र रहूँगी। मेरे पीछे न पड़ो। हम लोगों का हृदय भेड़ियों से भी भयानक है। अब जाओ, राज्य में बहुत से सुख तुम्हारी आशा में हैं।”


पुरुरवा ने उसका हाथ पकड़कर कहा-”निर्दय, निष्ठुर, क्या यही प्रणय-परिणाम है।”


उर्वशी झटके से हाथ छुड़ाकर मोह-निशा की तरह चली गई। अन्धकार की तरह केशभार पीछे पड़े थे। पुरुरवा ने क्षणिक व्यामोह के बाद देखा कि भगवान् भुवन-भास्कर अरुण राग से सारी धरा को प्लावित कर रहे हैं। प्रकृति सुषमासहेली को साथ लेकर मकरन्द और फूलों का अर्घ दे रही है। पुरुरवा सब भूल गये। उनका हृदय, भीतर भी उसी आलोक से आलोकित हो गया। विश्वभर उस सौन्दर्य से भर उठा।


Tags: Jaishankar Prasad, Jaishankar Prasad Story, Jaishankar Prasad Story In Hindi, Kavita Hindi, Kahaniya, Romantic Kahaniya, Romantic Story In Hindiजयशंकर प्रसाद कहानी , जयशंकर प्रसाद, जयशंकर प्रसाद कहानी उर्वशी, उर्वशी, कहानी, जयशंकर कहानी, उर्वशी कहानी, हिंदी कविता, कहानी

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh