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अब आखिरी कार्यक्रम था मुख्य अतिथि के हाथों प्रमाण पत्र का बांटा जाना। हाल खचाखच भरा था। सफल प्रशिक्षण के लिए सभी विभागों से बधाई आ रही थी। सभी प्रतिभागी मुख्य अतिथि से प्रमाण पत्र लेते फोटो खिचाते और अपनी जगह पर बैठ जाते। लेकिन मैं संजीवनी के दुस्साहस पर दंग रह गयी। उसने स्पष्ट शब्दों में कह दिया,मैं प्रमाण पत्र मैडम जी के ही हाथों लूंगी। खैर किसी ने विरोध नहीं किया। मुख्य अतिथि भी मुस्करा दिये। और इस तरह ग्राम प्रधानों की यह टोली अपने अपने गांवों को लौट गयी। मुझे याद रह गयी संजीवनी। ग्राम प्रधान सुन्दरपुर।
संजीवनी का बहाने मैं गांवों के खेत की फसलों की तरह याद करती जिसमे तरह-तरह के कीडे लग गये हैं। काश इन कमियों को दूर किया जा सकता। अक्सर मन में यह सवाल उठता कि पढे लिखे प्रशिक्षित ग्राम प्रधानों ने गांव के विकास के लिये कुछ किया भी है या स्वार्थ और बेइमानी की सुरसा उन्हें भी खा गयी। संजीवनी बहुत दिनों तक मुझसे जुडी रही। वह छोटी बहन की तरह मुझे अपने यहाँ बुलाने की जिद करती। और आज तो यह अजब घटना हो ही गयी। मेरे डाक्टर बडे भाई की पोस्टिंग एक कस्बे के नये बने अस्पताल में हो गई। रहने को बडा घर, फल सब्जियों से भरा बगीचा और काम करने वाले सीधे साधे अच्छे लोग। और क्या ही संयोग था कि उनके घर के बगल में संजीवनी को भी बडा सा घर मिला हुआ था। अभी हलवाहे और बैलों के थकने का रहस्य बताकर भाई के घर पहुंचनेसे पहले ही उसने मुझे पकड लिया। उसे देखकर सुखद आश्चर्य हुआ और आन्तरिक खुशी भी। संजीवनी ने मुझे अपने गांव सुन्दरपुर ले जाने की तैयारी पूरी कर ली।
उसका घर दूर से ही पहचान में आया वहां चन्दन और हरसिंगार के पेडों की पंक्तियां स्वस्थ और मस्त होकर डोल रही थीं।
घर की सबसे अच्छी जगह दुछत्ती थी जहां इन पेडों की छांव पड रही थी। सुबह सुबह हरसिंगार की सुगन्ध वातावरण में फैली हुई थी। मैने चन्दन को थोडा खुरच कर देखा तो सुगन्ध की लहर भीतर तक भिगो गयी। उस दिन संजीवनी ने मुझे लौटने नहीं दिया।
मेरी नजर उसकी हथेलियों पर पडी। सुन्दर बडी हथेली पर रेखाओं की भीड में एक रेखा टूटी थी। संजीवनी को अपनी तरफ एकटक देखते हुए मैने पूछा, तुम्हारे जीवन के कौन-कौन से साल बेहद खराब रहे? हां, याद करके बताती हूं। माँ की मृत्यु मेरे जीवन की सवसे बुरी घटना है और वह मेरे जीवन के छत्तीसवें साल में हुई। छब्बीसवें साल में एक सडक दुर्धटना और सोलहवें साल में भी ऐसा ही कुछ हुआ था.. बात टल गयी क्योंकि संजीवनी की बेटी टैडीबियर और गुडियों से लदी फंदी चली आ रही थी। बैजन्ती से शायद उसकी लडाई हो गयी थी। बैजन्ती संजीवनी के घर की देखभाल करती और पूरी तरह उसके लिए समर्पित थी। संजीवनी भी उसका पूरी ख्याल रखती। हम टहलते टहलते छत पर आ गये थे। वहाँ से बैजन्ती का घर साफ दिखता खाना बनाकर बैजन्ती अपने घर के लिए भी थाली ले गयी थी जिसे वे लोग खा रहे थे।
बैजन्ती की पति क्या करता है?
कुछ नही! पर इसने मेरी पढाई में बडी मदद की है। शहर से कापी किताबें और जरूरी चीजें ले आता था। गांव में आने जाने की सबसे बडी समस्या है। ये मुझे बोर्ड परीक्षाओं में साइकिल से ले जाता और ले आता था। मेरी माँ चाहती थीं कि किसी भी कीमत पर मैं पढ लिख जाऊं।
संजीवनी गांव में लडकियां सुरक्षित हैं?
लडकियां तो कहींभी सुरक्षित नहीं हैं दीदी। जब तक समाज की मानसिकता नहीं बदलती, और नयी सोच वाली पीढी नहीं आ जाती, तब तक अंधेरे का सफर करना ही पडेगा। कछुये की तरह अपने आपको समेटने से कोई फायदा नहीं। लडाई तो करनी ही पडेगी। तुम्हारी लडाई कब से शुरू हुई? इसे देख रही हैं। इसने मुझे बबाईद किया था और मैं आज तक नहीं समझ पायी कि यह मेरा दोस्त था या दुश्मन। ये सच है कि ये न होता तो मैं पढ न पाती पर इसने जो जख्म दिये उससे जीते जी मैं मर गयी।
हमने देखा बैजन्ती का पति औंधे मुंह सो रहा था। क्षमादान पाये निरीह प्राणी की तरह।
क्या हुआ था? कहते हुए मैने उसका चेहरा देखा। मुझे लगा कि यह सवाल पूछकर जैसे किसी सांप के पिटारे का ढक्कन उठा रही हूंँ। सूखे कुंए से आती हुई गीली आवाज मेरे कानों में आयी,वह दसवीं की आखिरी बोर्ड परीक्षा थी। मैं साइकिल पर पीछे बैठी अपना पाठ याद कर रही थी।
सूरजमुखी के पतले मेडों से होकर रास्ता जाता था कहीं कहीं गन्ने और चरी लगी हुई थी। अचानक ये सब कुछ छोड के खडा हो गया। बोला, आज मेरी इच्छा तब परीक्षा। कुछ समझने और न समझने की स्थिति में ऐसी किसी मुसीबत की भनक तक नहीं थी। मुझे मां कहती थीं घर का पली पुसा बच्चा है। इस पर भरोसा नहीं तो किस पर। सब कुछ ताक पर रखकर इसने किया जो नहीं करना चाहिए था। और एक पल में मैं खतम हो गयी थी। कुछ होश नहीं। अचानक मेरे कानों में स्कूल के घण्टे का आवाज टकराई। परीक्षा! परीक्षा! परीक्षा! मैने देखा वह जमीन पर लेटकर माफी मांग रहा था। मैने अपने क्रोध को पी लिया, अपना बस्ता उठाया, और दौड गयी। वह किलोमीटर नहीं मील का सफर था जिसे दौडते हुए मैने पूरा किया। सूखे खेतों ने रास्ता दिया, पम्पिंग सेट ने नहलाया, गर्म हवाओं ने कपडे सुखाये और आखिरी क्षण पहुंचकर मैने परीक्षा दी।
एक भुतैला सन्नाटा घिर आया था। मध्य रात्रि की चांदनी अपने पूरे वैभव में विहस रही थी। अपने में मस्त और अपने ही नशे में चूर। मैं सोच रही थी कि प्रतिशोध को संकल्प में बदल देने का नाम ही संजीवनी है। मेरे मुंह से अस्फुट निकला- तुम चन्दन हो संजीवनी और मन तुम्हारा हर सिंगार।
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