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पहले चलन कुछ यूं था कि घर में बेटा होता तो राजा कहा जाता और बेटी होती तो रानी। चंदा का भी बेटा हुआ तो उसे राजा कहा गया। नाम बिगडते-बिगडते रजनू हो गया। चंदा की बुलंद आवाज हरदम घर में गूंजती रहती। यह आवाज घर की रौनक थी। हाल यह था कि घर में वही एक और शोर-शराबा दल के जैसा, कोलाहल और रौनक बीस जैसी।
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वैसे चंदा जैसा उसके व्यक्तित्व में कुछ नहीं था। शायद उसके माता-पिता को यही नाम पसंद आ गया होगा। बचपन से वह चंचल, चुलबुली लेकिन भोली लडकी थी। बडी ठीक से हो भी नहीं पाई कि ब्याह हो गया। मायके में दस-पंद्रह कमरों वाले घर में स्वच्छंद दौडते-भागते बीतने वाले बचपन को विवाह की तथाकथित खुशियों के साथ मिला छोटा सा तीन कमरों वाला घर। काम करते हुए चंद क्षणों में ही वह पूरे घर का चक्कर लगा लेती थी। बार-बार जाए तो जाए कहां? फिर रसोई में जाकर खडी हो जाती। वहां भी कुछ खास करने को नहीं है। चलो चाय बनाते हैं। चाय बनेगी, गैस जलाएंगे, पानी रखेंगे, पानी उबलेगा, दूध और चाय की पत्ती डालेंगे। फिर मजे से बैठ कर चाय पिएंगे। इसमें आधा घंटा तो कट ही जाएगा। यह वह समय था जब दूरदर्शन भारत की सीमाओं तक नहीं पहुंच पाया था और यहां की स्त्रियों को घर-घर की कहानी वाले सीरियल्स देखने को नहीं मिलते थे।
धीरे-धीरे ढल जाता दिन और शाम आ जाती। चलो प्रतीक्षा खत्म हुई। पति ऑफिस से घर आ गए। अकेलापन कुछ कम हुआ। पैरों को जैसे पंख लग गए। झट से चाय बन गई। साथ में स्पेशल नमकीन भी ट्रे में सज गई। लेकिन भीतर की खामोशियां-उदासियां बनी रहीं। पति अच्छे सरकारी ओहदे पर थे, सहयोगी भी लेकिन हमसफर नहीं। उनके हाथ में या तो समाचार पत्र होता या दर्शनशास्त्र की मोटी-मोटी किताबें, जिनमें डूबते-उतराते उनकी शाम ढल जाती। फिर रात भी आ जाती। सूनी रातें और खामोश दिन। दिन में कभी-कभी चिडियों की चीं-चीं अनंत तक फैली खामोशी में व्यवधान पैदा कर देती थी। वीरानियों की पृष्ठभूमि में मूक जिंदगी दौडी चली जा रही थी कि घर में किलकारियां गूंजने लगीं। चंदा के दिन व्यस्त हो गए। इस तरह कई साल कट गए। बच्चों के पालन-पोषण की व्यस्तता, उन्हें बडे होते देखना, पढाई-लिखाई से विवाह तक की प्रक्रिया..एक लंबा समय व्यस्तता में गुजर गया। फिर एकाएक जीवन में ठहराव-खालीपन आ गया। बच्चे अपने-अपने नीडों में चले गए और बाकी रह गया अकेलापन। इस ठहराव में चंदा को जब दर्पण में अपना चेहरा देखने का समय मिला, बालों में सफेदी आने लगी थी और चेहरा भी अदृश्य लकीरों के निर्माण की तैयारी करने लगा था। पति की लाइब्रेरी दिन पर दिन समृद्ध होती गई और चंदा उस भीड से कहीं दूर छिटकती गई। पति लाइब्रेरी में व्यस्त रहते, खामोश-नि:शब्द वातावरण दिन पर दिन बोझिल होता जाता। पति रिटायर हुए तो दूसरी नौकरी पकड ली। एक दायरे से निकल कर दूसरा दायरा शुरू हो गया। चंदा पति के ऑफिस जाने की तैयारी करती, उनका लंच बॉक्स तैयार करती, फिर दिन भर खाली अकेली रहती।
पति के जाते ही बालकनी में आ जाती। कई बार यूं ही दरवाजा खोल कर बाहर झांक लेती। उसके झांकने में अव्यक्त सी प्रतीक्षा, व्याकुलता और आकुलता की झलक साफ दिखाई देती थी। ऊंची-ऊंची इमारतों के बीच कुछ सिंगल स्टोरी घर भी, लोगों की भीड.. लेकिन परिचित चेहरा कोई भी नहीं।
इसी बीच कुछ हलचल हुई। घर की अन्य व्यवस्थाओं में व्यस्त इधर-उधर दौडती चंदा एकाएक बोल पडी, अच्छा। तू आ गया पापा के जाते ही! घर में तो एक मिनट भी रुकेगा नहीं।
तेरी मां भी तुझे यहां भेज देती है मुझे परेशान करने और खुद घर में चैन से सोएगी। अब दिन भर मेरी जान खाएगा..। अच्छा चल, यहां बैठ। तेरे खिलौनों की टोकरी लाती हूं। गंदे हो गए थे। कल मैंने सब धोए हैं। पूरा एक घंटा लग गया। आंटी, आंटी..
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अब क्या हो गया..? रसोई से वही तेज आवाज। आंटी, आलू-पराठा खाना है।
ले अब क्या करूं। आज तो मैंने आलू उबाले ही नहीं। अपनी मां से क्यों नहीं कहता? रोज आलू का पराठा मांगता है। चंदा इधर-उधर चलते हुए घर के छोटे-मोटे काम करती जाती और चिल्लाती जाती।
अच्छा चल, आलू उबालती हूं, काम बीच में ही रोकती वह बोलती। कुछ ही देर में घी में तले आलू के गर्मागर्म पराठे तैयार हो जाते। अरे थोडा ठहर, छू मत लेना, गरम हैं। रुक जा, छोटे-छोटे टुकडे कर देती हूं, कहती हुई चंदा बच्चे के पास बैठ जाती, फूंक-फूंक कर, एक-एक कौर कर उसे खिलाती। बीच-बीच में चिल्लाती भी कि उफ अभी कितना काम पडा है।
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