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खाना खाते ही बच्चे की अगली फरमाइश आइसक्रीम की होती। चंदा फिर चिढती, अब आइसक्रीम कहां से लाऊं! बाहर निकलने के लिए साडी पहननी होगी, सारे काम छोडने होंगे। पप्पू तू मुझे बहुत परेशान करता है.. बोलते-बोलते चंद पलों में चंदा साडी पहन कर तैयार हो जाती। कुछ ही देर में दोनों आइसक्रीम पार्लर के सामने खडे होते। आइसक्रीम लेकर पप्पू खुश और मगन। चंदा का बोलना जारी रहता, अब कुछ नहीं मांगना पप्पू। अभी बहुत काम बिखरे हैं। मेरे पीछे-पीछे मत आना, चुपचाप एक जगह बैठ कर खेलना।
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पप्पू है कि अपने खिलौने छोड कर आंटी के पीछे-पीछे लगा रहता। पप्पू नीरस जीवन की उम्मीद है। जिस दिन नहीं आता, चंदा का समय नहीं कटता। अगले दिन सुबह के ग्यारह बज गए, वह नहीं आया। चंदा बार-बार घडी की ओर देखती, फिर दरवाजे तक जाती। बालकनी से झांकती, लेकिन पप्पू नहीं आया। चलो, कोई बात नहीं, वैसे भी बहुत परेशान कर देता है। कभी आइसक्रीम चाहिए, कभी चॉकलेट चाहिए तो कभी चिप्स चाहिए। आज दोपहर आराम से सोऊंगी। लेकिन फिर तुरंत ही दरवाजे से आवाज भी लगा दी, अरे सुनीता, आज पप्पू क्या कर रहा है? पडोसी का बच्चा, बडी बहन के स्कूल जाते ही, चंदा आंटी के पास चला आता और बहन के घर आते ही फिर वापस अपने घर दौडता।
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..सुबह की चाय बन गई। पति को लाकर दी। उनका अखबार साथ है। चंदा ने दो-चार बार हसरत भरी निगाहों से पति को देखा। बात करने की कोशिश भी की, मगर सब बेकार। चुप्पी सहन नहीं हो पाती चंदा को, चाय लेकर बालकनी में खडी हो गई। तभी कार साफ करने वाला दिख गया। उसी से बोलना शुरू कर दिया, अरे आज तो तूने गाडी खूब चमका दी। सर्दी ज्यादा है, तू केवल एक ही शर्ट पहन कर क्यों आ गया? इस तरह सुबह की चाय पीते-पीते चाय के अंदर डूबी हुई खामोशियों को बातों के चटपटेपन से मिठास के साथ नमकीन भी बना देना चंदा के बाएं हाथ का काम था। सुना है तेरा लडका हुआ है। कैसा है? तेरी शक्ल का हुआ तो बहुत ही बुरा होगा। मां पर गया हो तो ठीक है। उसके लिए कपडे लाई हूं, काम के बाद घर से ले जाना।
खडे-खडे कभी सब्जी वाली की झलक दिखलाई पड जाती है। अरे, तू तो कई दिनों से दिखाई नहीं दी। ऊपर आ जा। टमाटर, प्याज, खत्म हो गए हैं। अच्छा, तेरी पोती का मुंडन था, हो गया? तूने क्या दिया?
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मैडम हम गरीबों के पास क्या है देने को? अच्छा, जरा रुक, कल मैं बाजार गई थी। एक फ्रॉक लाई हूं। चटक लाल रंग की है, तेरी पोती के लिए ली है। और हां, बर्फी रखी है, वह भी ले जा। काजू की है, खराब नहीं होती, हम तो अब मीठे से परहेज करते हैं।
तभी दरवाजे की घंटी बज उठती है। देखूं, अब कौन आया? काम वाली बाई है, चलो एक-डेढ घंटा अब इसके साथ बीतेगा। काम बहुत अच्छा करती है। फर्श तो ऐसा चमका देती है कि अपना प्रतिबिंब दिखने लगे। चंदा आराम से कुर्सी पर बैठ जाती है। समाचार पत्र उठाया, आधे घंटे में पढ लिया। मैग्जीन भी पलट कर रख दी। पढी-लिखी वह थी, लेकिन पति के बौद्धिक सान्निध्य से दूर, बहुत दूर। उनकी बौद्धिक ऊंचाइयों से सर्वथा अछूती। उस परिवेश में न तो उसने घुसने का प्रयास किया और न उसके पति ने उसे इसकी इजाजत दी।
चंदा, एक अनोखी स्त्री है, जिसकी धुंधली सी छवि स्मृतियों में आते ही एक अलमस्त, बिंदास और खुशमिजाज, जिंदगी की सारी जद्दोजहद से निरपेक्ष खुद में जीती स्त्री दिखती है। चटपटा स्वादिष्ट भोजन बनाना और खाना, घूमना-फिरना, चटपटी बातें करना और दिल-दिमाग से थोडा दूर रहना। मस्त रह कर मस्ती में जीना, स्वयं के भीतर जीना, आनंद में जीना, आनंद लेना और सबको आनंद देना। लेकिन पति की चुप्पी की अभेद्य दीवार को जीवनपर्यत तोड नहीं सकी चंदा। सुबह से उठ कर शाम तक वह बोलती ही रहती है। कभी खुद से बोलती है, कभी यूं ही किसी को आवाज देती है। उसके घर की दीवारें कभी खामोश नहीं होतीं, केवल रात में सोती हैं। फिर दिन उगता है, चहल-पहल होती है, उमंग होती है, जीने का मिथ्या छलावा होता है। दिन के बाद रात, रात के बाद सुबह और फिर शाम होती है। जीवन यूं ही रेत की तरह फिसलता जाता है। एक वंचिता की तरह चंदा हर रोज अपने सिमटे हुए वजूद को फैलाने की कोशिश करती है। रजनू की मां चंदा है या वंचिता! एक प्रश्न है, जो अधूरा है। रात के अंधेरे में विलुप्त वंचिता ही क्या दिन के उजाले में चंदा है?
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