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14 फरवरी को वेलेंटाइन डे क्या आता है कि हमारे दिल, जिगर, कलेजे, गुर्दे.. और पता नहीं कहां-कहां के सारे जख्म हरे कर जाता है। अंदर से एक हूक-सी उठती है.. जब हम जवान थे, तब यह प्रेम-दिवस क्यों नहीं मनाया जाता था। आज फेसबुक, सेलफोन.. क्या-क्या नहीं है। और एक हमारी जवानी थी जो छोटे भाई-बहनों की मार्फत गुमनाम प्रेमपत्र भेज-भेज कर मेलों-ठेलों में दूर-दूर से ही दीदार करके तसल्ली-वसल्ली कर लेने में ही बीत गई।
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कहते हैं सत्रह से बाइस तक की उम्र जीवन का प्रेमकाल होती है। इस दौर में नालायक से नालायक बंदा भी, और कुछ हो ना हो, प्रेमी जरूर होता है। इस प्रेमकाल के प्रकांड प्रेमी जन आजकल चौखटा ग्रंथ की दीवार यानी फेसबुक की वाल पर दिल का हालचाल चस्पा करके शांत-चित्त हो लेते हैं, परंतु हमारे जमाने में इस श्रेणी के प्राणी दिल का गुबार निकालने के लिए कविता लिखा करते थे। प्रेम-सुनामियों में डूबते-उतराते.. डायरीनुमा कॉपी या कॉपीनुमा डायरी के पन्नों पर तुकें भिडाना ही इनका काम था। दरअसल सत्रह से बाइस की उम्र प्रेम के प्रचंड प्रकोप से ग्रस्त होती है। इस नाजुक उम्र में प्रेमरोग मस्तिष्क ज्वर की तरह दिमाग पर चढा रहता है.. और तब तक नहीं उतरता.. जब तक पत्नी रूपी वैद्य इसे गृहस्थी रूपी खरल में जड समेत न घोट दे।
दुर्भाग्य से, इस मामले में हम भाग्यशाली नहीं रहे। हमें इस दिव्य औषधि प्रेमासव की दो बूंदें तक सेवन के लिए नहीं मिलीं। सत्रह से बाइस की उम्र में हमें प्रेमरोग तो क्या लगना था, प्रेम का मामूली जुकाम भी नसीब नहीं हुआ। न दिल ने छीकें मारीं और न भावनाओं की रेंट ही बही। हमारा प्रेम-चेक ब्लैंक का ब्लैंक ही रह गया। कोई लचकदार हाथ आगे नहीं बढा जो कम-अज-कम उसमें चवन्नी-अठन्नी भर के सिग्नेचर ही मार देता।
सत्रह से बाइस वाली हमारे जीवन की पंचवर्षीय योजना प्रेम की भीषण अनावृष्टि के कारण खडी-खडी सूख गई। किंतु लोकोक्ति है कि बारह बरस बाद तो घूरे के दिन भी फिरते हैं। हम कदाचित् उस उच्च स्तर के घूरे नहीं थे। इसलिए हमारे दिन चार-पांच बरस में ही फिर गए। एक रात निद्रावस्था के दौरान स्वप्न में हमें यह बोध हुआ कि कवि बनने के लिए प्रेमी बनने का सुसंयोग तो उत्पन्न ही नहीं हो सका, परंतु प्रेमी बनने के लिए कवि किसी भी उम्र में बना जा सकता है।
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वैसे भी कविता और प्रेम में बडा गहरा रिश्ता है। काव्यशास्त्र और प्रेमशास्त्र के सभी डॉक्टरेट उपाधि प्राप्त विद्वान सुदीर्घ शोध-साधना के उपरांत एक मत से इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि कालिदास से लेकर घनानंद तक सारे कवि धुरंधर प्रेमी थे। अपने पंत जी भी छायावाद के छायादार वृक्ष तले बैठकर फरमा गए हैं .. वियोगी होगा पहला कवि..। अब देखने वाली बात यह है कि वह भला मानुष वियोगी तभी तो बनेगा जब पहले संयोगी हुआ हो। एक फिल्म गीत भी है जो इस संबंध में बडी इल्मी जानकारी देता है..हर दिल जो प्यार करेगा, वो गाना गाएगा.। यहां कविराय शैलेंद्र प्रकारांतर से यही स्पष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं कि हर दिल जो प्यार करेगा, वह कविता लिखेगा।
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सात सौ अश्व-शक्ति के इस प्रबोध ने हमारी मूढमति के किवाड भडभडाकर खोल दिए। हमारी तुच्छ बुद्धि रूपी फैक्स में से ईश्वर की ओर से भेजी गई योजना का प्रिंट-आउट निकलने लगा.. क्यों न कविता की एक लघु टाइप की पत्रिका निकाली जाए, जिसमें कवयित्रियों की कविताएं छापने के बहाने डोरे डालो अभियान चलाया जाए। पंद्रह पन्नों की पत्रिका की सौ प्रतियां पंद्रह सौ में छप जाया करेंगी। सौदा महंगा नहीं है। पंद्रह वर्षो में यदि पंद्रह प्रेमिकाएं भी मिल गई तो अगले-पिछले पंद्रह जन्म धन्य हो जाएंगे। अत: एक पत्रिका-सी लगने वाली चीज निकालनी शुरू कर दी। जहां से जो पता मिलता, ख्ास कर किसी कवयित्री का, झट से पत्रिका की एक प्रति सप्रेम भेंट लिख कर भेज देते। प्रत्युत्तर भी मिलने लगे। इससे उत्साहित होकर प्रेमिका नंबर वन की राह देखने लगे।
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