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उद्देश्यहीन भटकाव अंदर-बाहर। कभी पार्क की तरफ देखती हूं तो कभी अंदर आकर टीवी देखती हूं। मन किसी काम में लग ही नहीं रहा, मानो किसी ने सारी शक्ति निचोड ली है। जी में आ रहा है कि चीख-चीख कर रोऊं, चिल्लाऊं कि किसके लिए जी रही हूं? इस बडे से घर का सन्नाटा मुझे भयावह लग रहा है। बच्चे पार्क में खेल रहे हैं। रोज शाम मैं उन्हीं को देखकर मन बहलाती थी। बच्चों को लेकर उनकी मां आतीं, कभीकभार पिता भी आते हैं। उन्हें देख कर दिल को सुकून मिलता था, लेकिन आज पता नहीं क्यों कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है। दुनिया जैसे एक छलावा है। कभी-कभी किसी एक व्यक्ति की जिद्द परिवार को कैसे प्रभावित करती है, इसका जवाब देने के लिए आज अम्मा नहीं रहीं। वह चली गई मुझे एक विशाल खामोश घर के साथ अकेला छोड कर। उनकी जिद्द की वजह से मैं आज इस स्थिति में हूं। उन्होंने तो शायद सोचा ही नहीं होगा कि उनके जाने के बाद मेरा क्या होगा। सोचा होता तो इस घर में भी रौनक होती। शादी के पच्चीस साल होने जा रहे हैं, लेकिन मातृत्व सुख से वंचित हूं। मन में एक हूक सी उठती है। काश कोई मेरा भी होता जो मां कहता और मुझसे लिपट जाता। जिसकी एक हंसी में मुझे सारी दुनिया हंसती दिखाई देती और जिसकी आंखें नम होतीं तो मैं रोने लगती।
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..पीछे देखती हूं तो खुद को खुशमिजाज लडकी के रूप में देखती हूं। ससुराल आते ही मैंने सबका मन मोह लिया था। यहां बस चार लोग थे। जबकि मैं एक बडे परिवार से आई थी। तीन बहनें, एक भाई और ताऊ जी का परिवार। हम बहनों की आपस में खूब बनती थी। हर छुट्टी पर रिश्तेदारों के बच्चे भी रहने आ जाते। भरे-पूरे परिवार में रहने की आदत थी। ससुराल आई तो मन ही नहीं लगता था। यहां सिर्फ सास, ससुर, पति और मैं। ससुर उच्च अधिकारी थे और प्रभात इकलौती संतान। शायद इसीलिए उन्हें लाड-प्यार से रखा गया। अम्मा कहती थीं, उनकी इच्छा थी कि उन्हें दो-तीन बच्चे हों, लेकिन ऐसा न हुआ।
शादी के एक-दो साल तो हंसी-खुशी में गुजर गए। धीरे-धीरे सहेलियों, रिश्तेदारों की गोद भरने लगी, कुछ सहेलियां तो दूसरे बच्चे की तैयारियां करने लगीं, लेकिन मेरे यहां कोई अच्छी खबर नहीं थी। तब कहीं जाकर अम्मा का दिमाग ठनका।
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फिर जो सिलसिला शुरू हुआ, वह कुछ ही समय पहले थमा है। हम डॉक्टरों के पास दौडने लगे। ज्योतिषियों से लेकर सारे गुरु-महाराज तक के पास अम्मा चली गई। दूसरी ओर मैंने धीरे-धीरे खुद को समाज से काट लिया। जहां भी जाती, लोगों का सवाल होता, नेहा, खुशखबरी नहीं सुना रही हो? अंत में मैंने निर्णय लिया कि हम एक बच्चे को गोद लेंगे। मैंने प्रभात को समझाने की कोशिश की कि हम बच्चा नहीं पैदा कर सकते, पर किसी अनाथ बच्चे को गोद तो ले सकते हैं। प्रभात राजी हो गए। तय हुआ कि अगली सुबह अम्मा-पापा को बता कर शहर के अनाथ आश्रमों में चलेंगे। मैं कल्पनालोक में उडान भरने लगी। सोचती थी एक लडकी गोद लूंगी। उसके लिए ढेर सारे सुंदर कपडे ख्ारीदूंगी। लेकिन नियति ने शायद कुछ और सोच रखा था। सुबह मैंने घरेलू काम जल्दी-जल्दी निपटाए और अम्मा की पूजा समाप्त होने की प्रतीक्षा करने लगी। एक-एक क्षण भारी लग रहा था। डर भी रही थी कि कहीं अम्मा ने मना कर दिया तो! घर में उन्हीं की चलती थी। बाबूजी व प्रभात उनकी बात का विरोध नहीं कर पाते थे। अम्मा पूजा घर से बाहर निकलीं। उनके चेहरे पर चिंता की झलक थी। उन्होंने मेरे चेहरे को भांप लिया। मैंने सबको चाय दी और प्रभात की तरफ देखा ताकि वह बात शुरू करें। प्रभात के चेहरे पर असमंजस के भाव थे। शायद सोच रहे हों, कहां से बात शुरू करें। फिर उन्होंने गला खंखारते हुए कहा, अम्मा, हम सोच रहे हैं कि अब देरी करने के बजाय हम बच्चा गोद ले लें। प्रभात के इतना कहते ही मानो घर में सन्नाटा पसर गया। अम्मा ने बिना मुझे बोलने का मौका दिए अपना निर्णय सुना दिया, नेहा, कान खोलकर सुन लो, इस घर में बच्चा आएगा तो वह तुम्हारी कोख से जन्मा होगा। अनाथ आश्रम से इस घर में बच्चा नहीं आएगा। प्रभात, तुम्हारे पिता भी इकलौती संतान थे, तुम भी इकलौते हो। मेरा अटूट विश्वास है कि तुम्हें भी एक बच्चा तो जरूर होगा। बस उस परमपिता परमेश्वर और गुरु जी का विश्वास करो। यह मेरा अंतिम निर्णय है। मैं जीते जी अपना निर्णय को नहीं बदलने वाली.., बिना चाय को हाथ लगाए वह अपने कमरे में चली गई और दिन भर दरवाजा नहीं खोला। हम तीनों उन्हें आवाज देते रहे। हर बार कमरे से जवाब आता, मैं ठीक हूं, मुझे अकेला छोड दो।
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