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घर का माहौल दमघोंटू हो गया। उस दिन किसी ने कोई बातचीत नहीं की, न खाना खाया। शाम को अम्मा कमरे से निकलीं। पूजा घर में आरती की और फिर ड्राइंग रूम में आई। हमें बुलाकर बोलीं, प्रभात-नेहा, तुम दोनों मुंबई जाओ और वहां फिर से सारे टेस्ट करा लो। टेस्ट ट्यूब बेबी के लिए भी कोशिश करके देखो। किसी सही हॉस्पिटल के डॉक्टर से मिलने का समय लेकर तुम लोग अपना ट्रेन रिजर्वेशन करा लो। अम्मा अपने कमरे में चली गई। मैंने पापा की ओर देखा कि शायद वह कुछ बोलें, मगर वह सदा की तरह निरपेक्ष थे। प्रभात की चिंता, झल्लाहट चेहरे पर दिखने लगी थी। मेरी निगाहों से बचने के लिए उन्होंने बाहर का रुख कर लिया। मैं किसी तरह अपने कमरे में पहुंची। मन में आया कि चीख-चीख कर रोऊं, लेकिन संभ्रांत घर की बहू चिल्ला कर रो भी नहीं सकती। रात में प्रभात लौटे। पीठ थपथपाकर बोले, कितना रोओगी नेहा, अब चुप हो जाओ। उन्होंने मुझे अपनी बांहों में समेट लिया, तब जाकर मुझे लगा कि उनके अंदर भी कम हलचल नहीं है। मैं तो रो सकती हूं, वह पुरुष हैं, चाहें भी तो रो नहीं सकते।
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अगली सुबह अम्मा जी ने हमारा फैसला पूछा तो प्रभात की चुप्पी टूटी। उन्होंने कहा, अम्मा आप जैसा कहेंगी-वही होगा। कुछ दिन बाद हम मुंबई आ गए। फिर से टेस्ट और दवाओं का दौर शुरू हो गया और अंतत: वह दिन भी आया जब मुझे बेड रेस्ट दे दिया गया। अम्मा-पापा मेरा ध्यान रखते। मैं आशान्वित थी। दिन गुज्ार रहे थे, लेकिन नियत समय पर आकर फिर भ्रम टूट गया। कोख खाली रही।
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समय हर जख्म को भरता है। मैं वक्त से हारने वाली नहीं थी। मैंने खुद को व्यस्त कर लिया। किताबें मेरी दोस्त थीं, लाइब्रेरी की मेंबरशिप भी ले ली। बच्चों को पेंटिंग सिखाने लगी। इस बीच एक दिन पापा को हार्ट अटैक पडा और वह दुनिया से कूच कर गए। अम्मा के लिए यह कहर था। घर की खामोशियां और बढ गई। मगर अम्मा का निर्णय न बदला तो न बदला। हर बार कुछ नए टेस्ट होते मगर नतीजा सिफर रहा। उम्र निकलती गई। शानो-शौकत वाला घर खंडहर बनने लगा, मगर अम्मा की जिद्द कायम रही।
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..एक साल पहले अम्मा भी चली गई। कल उनका वार्षिक श्राद्ध हो गया। रिश्तेदारों के जाने के बाद मैं अकेली रह गई। प्रभात भी पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए, हर चीज से निरपेक्ष हो गए हैं। उम्र इतनी हो गई है कि बच्चा गोद लेकर उसकी सही परवरिश के बारे में भी नहीं सोच पाती।
..लेकिन आज का दिन मेरे लिए कुछ खास सौगात लेकर आया। प्रभात ऑफिस से आए तो उनके चेहरे पर अलग सी आभा दिखी मुझे। चाय पीने के बाद बोले, नेहा मैंने सोचा है कि हम ग्ारीब और अनाथ बच्चों के लिए स्कूल खोलेंगे। इन वंचितों को मुफ्त शिक्षा देकर अगर हम आत्मनिर्भरता की ओर बढा सके तो हमारे दिल का बोझ भी कुछ कम हो सकेगा। तुम व्यस्त रहोगी और बच्चों का भविष्य भी सुधर सकेगा..।
आज बरसों बाद प्रभात के चेहरे को अलग रौशनी में देख रही हूं। उनके चेहरे पर दृढ इच्छा और आत्मविश्वास है। मेरे दिल का बोझ उतरने लगा है। मैं नम आंखों के साथ कंप्यूटर की ओर बढ गई। स्कूल खोलना है तो उसकी रूपरेखा भी बनानी होगी न!
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