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वादियों को पीछे छोड ट्रेन मैदानी इलाके से होकर गुजरने लगी थी। ऊंचे-ऊंचे पर्वत शिखर और हरे-भरे पौधे पीछे छूटते जा रहे थे। थोडी देर पहले हवा का स्पर्श ऐसा था मानो किसी पहाडी झरने को छूकर आई हो। लेकिन दिन चढने के साथ ताजगी की जगह गर्माहट और उमस ने ले ली। जितेंद्र ने मोबाइल हाथ में लिया। थोडा सा इंतजार बाकी था। लंबे सफर की बोरियत दिलो-दिमाग में छाई थी, लग रहा था बस स्टेशन आ जाए।
जैसे ही ट्रेन ने शहर के बाहरी छोर को छुआ, उन्होंने साहिल को फोन लगाया, साहिल, मेरी ट्रेन सही समय पर है, कुछ ही देर में स्टेशन पहुंच जाऊंगा। तुम स्टेशन आ रहे हो?
पापा, ऑफिस में जरूरी काम आ गया है, मैं नहींआ पाऊंगा, लेकिन ड्राइवर स्टेशन पहुंच जाएगा, साहिल ने जवाब दिया।
ठीक है ड्राइवर को एक बजे से पहले ही भेज देना। जितेंद्र ने फोन काट दिया और खिडकी से बाहर देखने लगे।
करियर की ऊंचाइयों को छूने की ख्वाहिश दिल में संजोए उन्होंने बैंक की नौकरी जॉइन की थी और शुरू से ही प्रमोशन टेस्ट की तैयारी शुरू कर दी। पत्नी नीता ने पूरा सहयोग दिया। बच्चे साहिल व सोनल छोटे थे। साहिल रात में जागकर रोने लगता तो नीता उसे गोद में उठाकर बाहर बरामदे में ले जाती, ताकि जितेंद्र डिस्टर्ब न हो। कॉफी की इच्छा होती तो वह बिना आलस किए जाग जाती और कॉफी बना लाती। घर में बूढे सास-ससुर को वक्त पर खाना-दवा देना, नियमित चेक-अप के लिए डॉक्टर के यहां ले जाना जैसे सभी काम नीता ने संभाले थे, ताकि जितेंद्र निश्चिंत रह सके।
जितेंद्र को विफलता मिली तो निराशा हुई। आगे परीक्षा में न बैठने का फैसला लेने लगे तो नीता ने यह कहकर प्रोत्साहित किया कि कभी न कभी सफलता अवश्य मिलेगी। उसकी प्रेरणा ने उन्हें मंजिल तक पहुंचा दिया। शुरू में ट्रेनिंग के लिए अलग-अलग जगहों पर जाना पडा, लेकिन दो साल का समय यूं ही निकल गया।
ट्रेनिंग के बाद पोस्टिंग नैनीताल के पास हुई तो नीता खुश हो गई। बचपन से ही वह पहाडों पर रहने की कल्पना करती थी। लेकिन जितेंद्र ने उसे समझाया, अभी तुम कैसे जा सकती हो। बच्चों का स्कूल शुरू हो गया है। बार-बार ट्रांसफर होता रहेगा तो उनकी पढाई प्रभावित होगी। फिलहाल मैं अकेला जाता हूं। बाद में कहीं अच्छी जगह ट्रांसफर मिला तो सभी चलेंगे। नीता मायूस हो गई। जितेंद्र ने जाने की तैयारी शुरू कर दी। वे जानते थे कि वृद्ध माता-पिता शहर छोडकर उनके साथ नहीं जा सकते और इस हालत में यहां भी उनको अकेले नहीं छोडा जा सकता। नीता के यहां रहने से उन्हें आराम तो मिलेगा। यह सोचकर उन्हें अकेले जाना ही ठीक लगा।
नैनीताल की सुंदरता ने उन्हें मोह लिया था। मन में आता कि परिवार को भी यहीं ले आएं। लेकिन माता-पिता की वजह से खुद उन्हें बार-बार लखनऊ के चक्कर लगाने पडते।
समय इसी तरह बीतने लगा। बच्चे बडे हो गए, माता-पिता बूढे होते गए और ऐसा समय भी आया जब वे दुनिया से कूच कर गए, लेकिन जितेंद्र को अपने शहर लौटने का मौका न मिला। जहां पोस्टिंग मिलती, वहीं जाना पडता।
बच्चों के बडे होने पर नीता ने भी एक स्कूल में नौकरी शुरू कर दी। दोनों बच्चे प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने लगे। अब तो जितेंद्र का साथ सपना जैसा हो गया। एक बार जितेंद्र की पोस्टिंग कौसानी हुई। बडा सा घर किराये पर मिल गया। मकान-मालिक बाहर रहते थे। पडोस में रहने वाले एक युवक ने घर और बाजार का सारा काम संभाल लिया।
पास में ही रहते थे मिल्का सिंह, जो बरसों पहले जडी-बूटियों पर शोध करने पंजाब से यहां चले आए थे। यहां पहाडों के मोह ने उन्हें इतना बांधा कि यहींरह गए। दोनों बेटे विदेश में थे। पति-पत्नी जिंदादिल थे। उनकी जिंदगी ने जितेंद्र को सोचने पर मजबूर कर दिया।
छुट्टी के दिन समय काटने वह अकेले पहाडों की ओर निकल जाते। बर्फ से ढकी चोटियों का नजारा बडा अद्भुत लगता। उगते सूर्य की किरणें जब हिम आच्छादित पर्वत शिखर पर पडतीं तो लगता जैसे सोना बिखर गया हो, लेकिन पत्नी और बच्चों के बगैर एक खालीपन सा उनके जीवन में पसरने लगा था।
साहिल एम.बी.ए. के बाद माइक्रोचिप्स का बिजनेस शुरू करना चाहता था। उन्होंने अपनी जमापूंजी का बडा हिस्सा देकर उसका काम शुरू करवा दिया। फिर उसकी शादी हुई और कुछ ही समय बाद घर में एक नन्हा मेहमान भी आ गया। बेटी सोनल भी पढाई खत्म करके जॉब ढूंढ रही थी। नीता भी अब प्रमोशन लेकर अपने कॉलेज में प्रिंसिपल हो गई थी।
चंद दिनों पहले बैंक में ऐच्छिक अवकाश की योजना आई। जितेंद्र को यह योजना अपने लिए वरदान सी लगी। परिवार के साथ रहने का एक अवसर हाथ आया था, लेकिन मन में दुविधा भी थी। मिल्का सिंह से इस पर चर्चा की तो उन्होंने तुरंत पूछा कि रिटायर होकर वह करना क्या चाहते हैं। उन्होंने सहज भाव से कहा कि बेटे का बिजनेस शुरू हो गया है, उसमें मदद करेंगे। इस पर मिल्का सिंह ने फिर कहा, क्या उन्होंने बेटे से बात की है तो वह हैरानी से उन्हें देखने लगे कि इसमें बात करने की क्या जरूरत है। बेटे ने उन्हीं के पैसे से काम शुरू किया है। लेकिन मिल्का सिंह जितेंद्र की बात से सहमत नहीं हुए और उनका मानना था कि फैसला लेने से पहले उन्हें घरवालों से बात करनी चाहिए।
जितेंद्र अब किसी भी कीमत पर घर में रहना चाहते थे। उन्होंने अपने मैनेजर से एक महीने की छुट्टी स्वीकृत कराई और घर जाने की तैयारी शुरू कर दी।
तमन्नाओं की उडान ऊंची थी। उसमें खुशियों भरी जिम्मेदारी के साथ संगिनी के साथ समय बिताने की चाह भी थी। पौत्र पीयूष को जी भरकर देखने का मन भी था। सोचते थे कि साहिल के साथ काम शुरू करने से पहले कुछ दिन सिर्फ पत्नी को देंगे। बेटी की शादी भी करनी थी। विचारों की श्रृंखला को तब विराम लगा, जब उनकी गाडी घर के दरवाजे पर रुक गई।
डोर बेल पर हाथ रखने से पहले ही सोनल ने दरवाजा खोल दिया और बैग ले लिया। अंदर जाकर जितेंद्र ने नजर घुमाई तो कोई न दिखा। सोनल ने बताया, मम्मी के स्कूल में वार्षिक उत्सव है। इसलिए उनका जाना जरूरी था। थोडी देर में आ जाएंगी।
बहू प्रिया और पोता पीयूष भी नहीं दिख रहा था। सोनल ने बताया कि पीयूष अभी स्कूल से आया है और भाभी उसे खाना खिलाकर सुला रही हैं। मैं आपके लिए चाय बनाकर लाती हूं, कहकर सोनल किचन में घुस गई।
तभी पीयूष की हलकी सी आवाज आई, यानी वह सोया नहीं है। उन्होंने तुरंत खिलौनों का पैकेट बैग से निकाल लिया। कुछ देर इंतजार करते रहे, फिर सोचा आवाज देकर बुला लें, लेकिन कुछ सोचकर चुप रह गए।
सोनल तब तक ट्रे में चाय एवं स्नैक्स लेकर आ गई। बोली, पापा आप चाय पीकर फ्रेश हो जाइए। मुझे अभी बाहर निकलना है। भाभी आपको खाना परोस देगी।
ठीक है बेटा, तुम अपना काम करो, कहकर वह खामोशी से चाय पीने लगे। थोडी देर बाद बाथरूम में घुस गए। नहाकर निकले तो प्रिया खाना लगा रही थी। उसने आकर जितेंद्र के पैर छुए तो उन्होंने तुरंत मिठाई निकालकर उसे थमा दी, लो बहू, यह अल्मोडा की मशहूर बाल मिठाई है। फिर पूछा,पीयूष सो रहा है क्या?
हां पापा। कुछ ही देर पहले आया था। अभी स्कूल का होमवर्क करके सोया है। बहू ने कुछ मुलायम स्वर से कहा।
रात में सभी खाने की मेज पर जुटे तो मिठाई का डिब्बा बीच में रखा था। खाने के बाद उन्होंने डिब्बा खोला तो साहिल ने कहा, पापा मेरा तो वजन कुछ बढ गया है, मैंने मीठा बंद कर दिया है। प्रिया को मिठाई पहले से पसंद नहीं थी। नीता ने भी मना कर दिया। सोनल ने ही एक टुकडा अपने मुंह में रखा।
कुछ देर वे डिब्बे की ओर देखते रहे। फिर हाथ धोकर उठ गए। अब अकसर उन्हें घर पर देख आस-पडोस के लोग जुट जाते और शाम थोडा गुलजार हो जाती। नीता रोज स्कूल से लौटती और लोगों को देख खीज जाती। वह थक जाती थी और कुछ देर आराम करना चाहती थी, लेकिन औपचारिकतावश उसे भी कुछ देर बैठना ही पडता। चाय-नाश्ता भी तैयार करना पडता। चिढकर उसने शिकायत की तो जितेंद्र ने शाम को अकेले ही घर से निकलना शुरू कर दिया।
आए हुए एक सप्ताह हो गया था। नीता के स्कूल में वार्षिक परीक्षाएं शुरू होने वाली थीं। इस वजह से वह समय नहीं दे पा रही थी। घर में अकेले वक्त भी नहीं कट रहा था तो उस दिन उन्होंने साहिल के ऑफिस जाने का फैसला किया।
सुबह चाय पर उन्होंने बात छेडी, साहिल मैं भी तुम्हारे ऑफिस चलता हूं। तुम्हारी मदद कर दूंगा। यह सुनकर साहिल ऐसे चौंका मानो कोई अप्रत्याशित बात सुन ली हो। बोला, पापा, आपके आराम के दिन हैं। अभी भी काम करना है तो रिटायरमेंट का क्या मतलब? मेरे साथ प्रिया है, वह सही ढंग से जिम्मेदारी निभा रही है। आप चिंता न करें। वह उठ खडा हुआ।
जितेंद्र को यह उम्मीद नहीं थी। नीता की ओर देखा तो वह भी मौन थी। वह चुपचाप न्यूज पेपर पढने लगे। दूसरे दिन प्रिया साहिल के साथ ऑफिस जाने को तैयार हो कर आई और वे सूनी आंखों से दोनों को जाते देखते रहे।
कुछ देर बाद नीता आकर बोली, आप भी नाश्ता कर लो। आज से प्रिया भी ऑफिस जा रही है। दिन में घर पर कोई नहीं होगा।
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