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सांय-सांय करता सन्नाटा दिसंबर की ठिठुरती रात के सीने में हलचल मचा रहा था। लोग नींद के आगोश में थे। देवयानी को अभी-अभी ही झपकी लगी थी। सार्त्र को पढते-पढते सो गई थी कि अचानक सिगरेट की तीखी गंध से जाग गई। उफ! मितली सी आने लगी.. लिहाफ झटक कर बाहर निकली। कोई भी तो नहीं..फिर सिगरेट की गंध? वह बाहर बगीचे में आ गई। पेड-पौधे चुप थे, शांत और निर्विकार। कहीं परिंदा भी नहीं फडफडाया, पत्ते भी न हिले। चौकीदार का पता नहीं! कोई भूत-प्रेत का चक्कर तो नहीं! पहाडों में अकसर लोग कहा करते थे कि ऐसी घटनाओं के पीछे कुछ ऊपरी हवाएं होती हैं। देवयानी को बचकानी बातों पर विश्वास नहीं होता। उसने आकाश को देखा, पूर्णमासी का खिलता चांद, झर-झर झरती चांदनी, नीले विराट शून्य में नन्ही-नन्ही तारिकाओं की टिमटिमाती ज्योति, कहीं दूर से बादल का टुकडा सर्र से आकर पेड-पौधों को हिलोर गया। देवयानी का मन हुआ इस विराट सौंदर्य को छक-छक कर पी ले। सहसा हवा का तेज झोंका आया और जिस्म पर बर्फीली लहर छोड गया। उसने शॉल को कस कर लपेट लिया। आकाश पर मुग्ध दृष्टि दौडा कर भीतर आ गई। नींद उचट चुकी थी। सिगरेट की गंध सीने में धंस चुकी थी। महसूस हो रहा था, मानो सिगरेट उसी ने पी है। सुबह नेहा को लेमन टी थमाते हुए देवयानी ने रात की घटना बयान करते हुए भूत-प्रेत की शंका वाली बात बताई तो खिलखिला पडी नेहा, हां, भूत ही तो है..। उसने बडी-बडी आंखों की पुतलियों को घुमाया गोल-गोल। उसी ने पी होगी सिगरेट.. और तुम अंत:करण से पारदर्शी हो चुकी हो देवयानी, तुम्हारे भीतर पर्वत-सी ऊंचाई और सागर-सी गहराई आने लगी है..।
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क्या कह रही हो..? देवयानी नेहा का चेहरा देखती रह गई। हां, देवयानी तुम्हारा अंत:करण पारदर्शी हो गया है..। यही तो प्रेम का वैभव है, तभी तो तुम्हें अविनाश की सिगरेट की गंध आई..। ऐसा तभी होता है जब दो प्रेमी इतने एकात्म हो जाते हैं कि एक-दूसरे में खुद का रूप महसूस करने लगें। प्रेम परमात्मा का ही रूप है देवयानी। देवयानी के मासूम चेहरे को निहारते हुए नेहा चाय की चुस्कियां लेने लगी। दोनों घनिष्ठ मित्र थीं। कॉलेज प्रांगण में बने टीचर्स क्वार्टर में रह रही थीं। तुम अविनाश से मिल क्यों नहीं लेतीं देवयानी..? नेहा ने अंतिम घूंट भरा और देवयानी की हथेली थामी, अरे! तुम्हें तो बुख्ार है देवयानी..।
देवयानी का कंठ अवरुद्ध हो गया, उसकी छाती से बगूला उठा, मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है नेहा..। मन है कि हर वक्त अविनाश के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। लेकिन उसने मेरी सुध भी नहीं ली..। बोलते-बोलते देवयानी की आंखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी, मैं अविनाश के बिना जी नहीं सकती..। आईने में देखती है खुद को, सूखा-पीला पडता चेहरा मानो टीबी की मरीज हो। बस.. अविनाश को देख ले एक बार। दो बोल सुन ले.. तो सांसें टूटने से बच जाएंगी.. किसी रोमैंटिक नॉवल की पंक्तियां मन में गूंजने लगी थीं।
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हाथों को छूकर देखती है। नाजुक गोरे हाथ सांवले कैसे हो गए, गोकि अविनाश के हाथ हों..। अविनाश का चेहरा उसके चेहरे में झांकता..उसका अपना चेहरा पलक झपकते गायब। समझ नहीं आया कि वह पंचतत्वों की ख्ाुद है या अविनाश..। उसका अपना वजूद कहां गया..? उसमें जीवित है तो सिर्फ अविनाश..। तीस बसंत झर चुकने पर प्रथम बार जीवन में खिला बसंत.. कैसे विचित्र अनुभव घटित हो रहे थे। अचानक खो जाती है देवयानी क्लास रूम में पढाते हुए। आंखों में उभरने लगते हैं वे पल जिन्होंने उसकी जीवनधारा बदल दी थी, वर्ना तो वह एक पाषाण खंड थी, जिसे राम के चरण कमलों के स्पर्श की कामना भी झूठी लगती थी। पत्थर की चट्टान हो गया था उसका मन, जिसमें कोई आवेग, न संवेग बचे थे। उसके भीतर मीलों दूर फैले रेत के कछार थे सिर्फ..। छात्राएं उसे झक्की-सनकी मैडम जैसी उपाधियों से विभूषित करती थीं। नेहा उसके माथे पर पानी की पट्टियां रखती है, उसके तलुवे सहलाती है, इस तरह जिंदा नहीं रह सकोगी तुम। फोन करो अपने डॉक्टर को।
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मोबाइल पर अविनाश का रूखा सा उत्तर व्यस्त हूं, थोडी देर बाद फोन करना.., देवयानी सन्न रह जाती है, पत्थर दिल है। फिर अगले क्षण ही मन रोने लगता है, नहीं-नहीं, तुम पत्थर नहीं हो सकते अविनाश, मुझसे मिलते ही तो पानी हो जाते हो तुम, जिसमें अपनी जीवन-नाव सुगमता से ले जाती हूं उस पार। देवयानी अतीत के पन्ने पलटती है। बार-बार वह पल दिखाई देता है जब वह अविनाश की पत्रिका के ऑफिस में गई थी। सोचा था किसी बुजुर्ग संपादक से मुलाकात होगी, लेकिन वहां एक सलोने युवक को देख अचरज से भर गई। एकाएक उसे लगा उसके चेहरे पर युवक की खोजपूर्ण आंखों की पुतलियां ठहर गई हैं। वह दृष्टि सम्मोहन से भरपूर थी। देवयानी की पलकें झुक गई। वह उठ नहीं पाई। पता नहीं चला, कब अविनाश ने उसके लिए चाय मंगा ली….
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