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घर के लोग मुंह लटकाते हुए धीरे-धीरे तितर-बितर हो रहे थे। बाहर के मेहमान जो शहर से शामिल होने आए थे, या तो जा चुके थे या अपनी-अपनी गाडियों में चाबी घुमा रहे थे। कुछ झुंड बनाकर मंडप के बाहर खुसुर-पुसुर कर रहे थे। शहर के बाहर से पधारे मेहमान पशोपेश में थे। वे तो अपने तय समय पर ही जा सकते थे। सबकी बुकिंग थी, गाडी में, ट्रेन में, बस में। कुछ प्लेन से जाने वाले थे। सबने सोचा था विवाह संपन्न होने के बाद दो-चार दिन इधर-उधर घूम लिया जाएगा। लडकी के विदा होने पर वैसे ही घर भुतहा सा लगने लगता है। दो-चार दिन रह लेंगे तो चहल-पहल भी रहेगी और घरवालों को खलेगा भी नहीं। घूम लेंगे तो एक पंथ दो काज हो जाएगा। लेकिन अब सबको लग रहा था कि एक-एक पल कैसे काटें। सब एक-दूसरे से मुंह चुरा रहे थे। यहां का खाना-नाश्ता भी कैसे खाएं? सबके मन में एक ही बात आ-जा रही थी।
Read – शायद मैं फिर बहक रही हूं !!
बगीचे के बीचोबीच बनाया गया हवनकुंड बिना जले ही आंसू टपका रहा था। लटके बंदनवार हवा में झूलते हुए मुंह चिढा रहे थे। अरे अंकल! क्या बात है आप लोग क्यों गुमसुम से बैठे हैं? विनीता की आवाज सुनकर सब चौंक पडे। क्या यह वही लडकी है, जिसकी बारात अभी घंटा भर पहले वापस हुई है? शहनाइयों की गूंज की जगह जिसके माता-पिता की सिसकियां रह-रहकर सुनाई दे रही थीं। खुशी का माहौल दर्द और निराशा से भर गया। सबने एक साथ हैरानी से उसे घूरा।
हंस पडी विनीता..। मैं ही हूं। अच्छा, एक बात बताएं आप लोग, क्या सचमुच मैंने कुछ गलत किया है? कुछ पल के लिए वह चुप्पी साध गई, ताकि प्रत्युत्तर मिल सके। अचानक किए गए प्रश्न का जवाब कोई नहीं देना चाहता था। क्या उत्तर दें? न जाने कितने सालों बाद इस घर में खुशी का माहौल बना था ..।
प्लीज! बताएं क्या मैं गलत हूं? विनीता ने एक बार फिर प्रश्न का जवाब पाना चाहा।
कुछ पल तक अनचाही सी खामोशी माहौल में पसरी रही, फिर ताऊजी ने गला खंखारा मानो कुछ अटके हुए से शब्द बाहर निकलना चाहते हों.., नहीं, ऐसी बात नहीं है बेटा..। उन्होंने अपनी बात कहने का साहस किया, लेकिन इस तरह जरा अटपटा सा..
अटपटा? अचानक ताऊजी की छोटी बेटी कनिका आ टपकी। जहां अप्रत्याशित घटनाक्रम से आहत विनीता ने अब तक धैर्य बनाए रखा था, वहीं कनिका रौद्र रूप में थी, मानो देवी चण्डिका ही प्रकट हो गई हों।
Read – इन सपनों में मेरी जगह कहां है !!
सबका ध्यान उसकी ओर गया तो उसने अपनी बात आगे बढाई, क्या अटपटा लगा पापा आपको? समझ नहीं आता आखिर आप लोग बेटियों से चाहते क्या हैं? यही कि वे हमेशा अपने मुंह पर पट्टी लगाकर रहें? कुआं-खाई, नदी-नहर कुछ भी सामने आ जाए, उसमें कूद जाएं? उनकी गहराई नापने की भी जरूरत नहीं है।
ताऊजी हतोत्साहित हो उठे। बेचारे ताऊजी को क्या मालूम था कि उनका एक ही शब्द कनिका को इतना मुखर बना देगा। वह तो विनीता का पक्ष ही लेना चाहते थे। वह भी तो यह सब भुगत चुके थे, बल्कि अब तक भी भुगत रहे थे। बडी बेटी के विवाह में उन्होंने क्या नहीं किया। सोचा, लडके का परिवार अच्छा है, विदेश में है तो अपनी सामर्थ्य से बढकर देने में क्या बुराई है! उनकी लडकी सुखी रहेगी। मध्यस्थता करने वाले व्यक्ति भी जान-पहचान के थे। इसके बावजूद शादी नहींचल सकी। लडका कभी लडकी को अपने साथ लेकर नहीं गया। हां! आता जरूर था वर्ष में एक महीने के लिए। कई वर्ष तो उन्हें संदेह नहीं हुआ। सविता इस बीच जुडवा बच्चों की मां भी बन गई। लडके की पोल तब खुली, जब सविता को पी-एच.डी. के लिए कोलंबिया यूनिवर्सिटी से स्वीकृति आ गई। साइंस स्टूडेंट सविता अड गई कि वह रिसर्च करेगी।
बच्चों का क्या होगा? सास के पूछने पर सविता ने साफ कहा, आपके पास रहेंगे।
भाई साहब आप ही बताइए, क्या अब हमारी उम्र है बच्चे पालने की? सविता की सास ने बिलबिलाकर ताऊजी से कहा था। लेकिन सविता से अधिक तो कनिका बिगड रही थी। क्या मतलब है ऐसी शादी का? वह रोज अपनी बहन की दुर्दशा देखती थी। इतना सब करने के बाद उसे क्या सुख मिल गया। सविता के सास-ससुर को कभी यह महसूस तक नहीं हुआ कि शादी के बाद से उनकी बहू लगातार अकेली रह रही है। हर काम दौड-भागकर करती है, लेकिन बदले में उसे क्या मिला? पति तुषार ने ढंग से कभी बात भी नहीं की। साल में एक महीने के लिए आता भी तो पंद्रह-बीस दिन ही घर पर रहता था। बाकी दिन तो भारत-भ्रमण और दोस्तों से मिलने-जुलने में निकल जाते। हां, सविता को दो बच्चे जरूर गिफ्ट में दे दिए उसने। इतना समय भी नहीं मिल पाया उसे कि पति को ठीक से जान-समझ पाती।
बहन की स्थिति से कुढी हुई कनिका के लिए जब ऑस्ट्रेलिया में बसे एक भारतीय परिवार से रिश्ता आया तो उसने साफ इंकार कर दिया। सविता ने उसे समझाने का प्रयास किया, लेकिन वह नहीं मानी।
…आपको क्या मिल गया शादी करके? उसने बहन से ही उल्टा सवाल किया।
मतलब? वह हकबका गई।
Read – अब वह शायद की कभी आएगा !!
मैं पूछ रही हूं आप क्या कर रही हो सिवा अपने पति के वंश को समेटने के? बंधुआ मजदूर हो, बेगारी में मिले बच्चों को पालो। उसके सब्र का बांध टूट चुका था।
बस, कनिका! प्लीज मेरे बच्चों को मत कोसो। मैंने अपनी कोख से इन्हें जन्म दिया है। कूडे-करकट से उठाकर नहीं लाई हूं..। सविता की आंखों से आंसू टपकने लगे थे।
कनिका को अपनी गलती का एहसास तुरंत ही हो गया, लेकिन कमान से निकले तीर को वापस लाना कठिन था। कनिका ने बच्चों को पुचकारने के लिए हाथ बढाया तो सविता फुफकार उठी, मत छुओ मेरे बच्चों को! तुम कैसे समझोगी कि मां क्या होती है! तुम तो उस एहसास से गुजरी नहींहो न!
कनिका अपराधिनी की तरह सिर झुकाए खडी थी। पापा-मम्मी न जाने कब से उनकी बातें सुन रहे थे। वे भी वहींआकर खडे हो गए, लेकिन बीच में किसी को टोकना उन्होंने उचित न समझा। वे जानते थे अपनी छोटी बेटी को, नहीं रोक पाती थी खुद को, अन्याय बर्दाश्त कर ही नहीं सकती थी।
इस घटना का असर कई दिन तक बना रहा। अंत में सुलह हो गई। आखिर तो दोनों बहनें ही थीं। छोटी-मोटी लडाई से रिश्ते पर कोई फर्क नहीं पडता। कनिका धीरे-धीरे एक बार फिर बडी बहन के करीब हो गई। उसके तर्र्को ने ही सविता को मजबूर किया कि वह अपने और तुषार के संबंध पर फिर गौर करे। न पति का सुख, न दु:खों का साझा, न कोई भावनात्मक रिश्ता। लिजलिजे शारीरिक रिश्तों से ज्यादा आखिर उनके संबंधों में बचा ही क्या था? उसी की देन थे बच्चे, जिन्हें उसने अकेले ही पाला है। लेकिन अब वाकई उसे अपने भविष्य के बारे में सोचना होगा। वह एक पत्नी, मां और बहू का कर्तव्य तो निभा रही है, लेकिन उसका अपना वजूद क्या है? उसकी इच्छा क्या है? क्या वह स्वयं को पहचानती है? या कुछ समय बाद अपना नाम भी भूल जाएगी? सच ही तो है। उसके मन के आईने में ही खुद उसकी तसवीर कहां स्पष्ट थी? यह तो कनिका थी, जिसने उसे सोते से जगाया। मम्मी-पापा ने तो उसे मौन रहना ही सिखाया था। उसके मन में द्वंद्व और शीत-युद्ध चलने लगा था। अंत में इस नतीजे तक पहुंची कि उसे अपनी पढाई पूरी करने बाहर जाना ही होगा………..
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