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फिर वह पटना आई। हर शाम सज-संवर कर पति के साथ क्लब जाती। जब दो पैग पीकर वे ठहाका लगाते, तो वह कांप उठती। ऊपर का कमरा उसका अपना था। उसके बच्चे नीतू और विवेक बगल के कमरे में सोते थे। उसका बहुत मन होता था कि वह बच्चों के बीच में जाकर सो जाए। मगर वह नहीं कर पाती। एक नजर बच्चों को देखकर पति के पास आ जाती। फिर वे उसे समेट लेते। मुंह से शराब की बदबू आती और धीरे-धीरे ये गंध उसके जिस्म में उतर जाती। वह समझ नहीं पाती कि इस पुरुष पर क्रोध करे या दया।
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सुबह विवेक शिकायत करता कि मम्मी, तुम मेरा होमवर्क नहीं करातीं। रिजल्ट अच्छा होता है तो पापा बस गुड कह देते हैं। बुरा होने पर डांटते हैं। नीतू अब कुछ नहीं कहती। एक बार उसने डरते-डरते कहा था, मम्मी, तुम मेरे साथ क्यों नहीं सोती? मुझे अकेले डर लगता है। वह भी कुछ नहीं कह सकी थी। न बच्चों से, न पति से। भीतर ही भीतर, उसे भी बहुत भय लगता था। मगर आज उसे लगता है, जैसे सब कुछ यहीं से शुरू, यहीं से अंत..।
तब बच्चे नहीं हुए थे। हाथ में तनख्वाह पकडाकर उन्होंने कहा था, इससे घर चलाना.. और ये रखो।
क्या है?
सौ का पत्ता।
क्यों?
सेवा करने की तुम्हारी बख्शीश।
वे ठहाका लगाकर हंसने लगे थे।
वह कांप गई थी। आंखों में आंसू आ गए थे।
अरे, ये क्या हुआ?
अगर कभी मैं इस लायक नहीं रही तो..?
तब भी तुम्हें यह मिलता रहेगा, यह पॉकेटमनी है। इसे सिर्फ खुद पर ख्ार्च करना। समझीं?
वह बुत की तरह खडी थी कि उन्होंने उसे बांहों में समेट लिया-वचन दो, तुम इन रुपयों को न घर पर खर्च करोगी, न मुझ पर..। सिर्फ अपने-आप पर। मेरी कमाई के किसी हिस्से पर तुम्हारा बहुत पर्सनल हक हो। यही चाहता हूं।
फिर बच्चे बडे हुए। उन्हें पॉकेटमनी देकर, वे हजार-हजार के पांच नोट उसकी तरफ बढा देते-योर पॉकेटमनी, एलिस डार्लिग।
ऐसा हर महीने होता। लेकिन एक दिन जब वे ऑफिस चले गए और बच्चे स्कूल के लिए तैयार हुए तो विवेक आया। उसके हाथ में नोट थे। नीतू भाई के साथ चुपचाप खडी थी। क्या बात है विकास? एलिस ने पूछा था।
वह चुप रहकर जैसे शब्द खोज रहा था। यकायक उसने सारे नोट फेंक दिए। आखिर मैं तुम्हारा बेटा हूं.. पापा का बेटा हूं.. नौकर नहीं कि पॉकेटमनी के नाम पर हमें रुपये थमा दें। आई हेट दिस मनी। नीतू, फेंक दे रुपये।
Read – तुम्हारे जाने के बाद मेरा क्या होगा….?
नीतू चुप खडी रही तो विवेक ने उसे एक चपत मारी-तुम भी मम्मी की तरह स्लेव बनके रहो। वह गुस्से में दनदनाता हुआ निकल गया था। नीतू भी उसके पीछे गई..।
एलिस ठगी-सी रह गई। विवेक इतना बडा हो गया, सोचने-समझने लगा। एक वह है, जिसे पति, पार्टी, क्लब के दायरे में कुछ भी नहीं पता। वह बिस्तर पर ढह सी गई।
उस शाम वह क्लब नहीं गई। वे अकेले ही गए। बच्चे पढने लगे तो वह नीतू के पास आई, आओ नीतू, होमवर्क करा दूं।
नीतू एकटक देखने लगी तो उसने पूछा-
ऐसे क्या देख रही हो?
आज तुम क्लब नहीं गईं मम्मी?
अब कभी नहीं जाऊंगी।
पार्टियों में?
वहां भी नहीं।
नीतू उससे लिपट गई थी। तब तो आज हम नहीं पढेंगे, सिर्फ मम्मी से बातें करेंगे। और वह जबरदस्ती उसे बिस्तर पर लिटाकर स्कूल की बातें बताने लगी। साल-दो-साल पीछे की भी बातें। उसकी आंखें भीग गईं। इतना कुछ बताना था नीतू को और वह सुन ही नहीं सकी। तभी विवेक आया तो एलिस ने कहा, विवेक, तुम मुझे कुछ नहीं सुनाओगे?
मम्मी, बातें तो बहुत थीं, मगर यकीन नहीं था कि तुम्हारे पास वक्त होगा। इसलिए कुछ याद नहीं रखा। वह कमरे से बाहर चला गया। वह नीतू से लिपटकर रोने लगी। कहीं यहीं से तो सब शुरू नहीं हुआ था? यहीं से अंत..?
फिर समय का रंदा वर्षो के जिस्म छीलता रहा। कितना कुछ बदल गया। वे अकेले क्लब जाते रहे, पीकर देर से लौटते। नीचे के कमरे में सो जाते। कभी-कभी लौटते ही नहीं। सुनने में आया कि क्लब में आने वाली किसी औरत से…।
मगर एलिस चुप रहती। जिस रात नहीं लौटते, परेशान-सी रात भर दरवाजे तक जाती और लौट जाती। कई बार उसने देखा, विवेक खिडकी पर खडा होकर चुपचाप सिगरेट पी रहा है। उसकी हिम्मत नहीं होती कि उससे सिगरेट छीन ले। सुबह उसकी लाल आंखें देखकर वह पूछती, रात भर सोए नहीं विकू?
सारी रात पढता रहा..। वह पलटकर पूछता, मम्मी, तुम्हारी आंखें भी लाल रहती हैं, किसी डॉक्टर को दिखा लो। उस क्षण उसे लगता, कहे, विकू बेटे, तेरी मां भी परीक्षा दे रही है। प्रश्न है, औरत के सामने जब चुनाव आए तो किसे चुने? पति को या संतान को?
धीरे-धीरे सब बदल गया। नीतू युवा हो गई। परंतु एक चीज नहीं बदली। हर महीने बच्चों को पॉकेटमनी मिलती रही, उसे भी। कितनी बार ट्रांसफर हुए, कितनी बार वे लौटकर पटना आए, मगर घर लौटकर भी, जैसे कभी नहीं लौटे। लौटे तो सिर्फ अपने कमरे में।
एक बार उसने साहस करके पूछा, कभी घर के लिए भी समय निकाल लिया कीजिए न!
समय रहता ही कहां है। नौकरी देखूं, करियर देखूं, सोसायटी देखूं या घर? किसी मास्टर या किरानी से ब्याह करतीं तो पांच बजे आकर खूंटे से बंध जाता। आई.ए.एस. भी चाहिए था तुम्हें, बंगला भी और कार भी। न ख्ाुद एडवांस बन सकीं, न बच्चों को बनने दिया। कभी विदेश जाकर देखो, बच्चे कितने इंडिपेंडेंट होकर पढते हैं, तुमने सब चौपट कर दिया।
उसेसमझ में नहीं आया कि इस आदमी पर क्रोध करे या दया। उस दिन से वह हमेशा के लिए चुप हो गई।
विवेक ने ही नीतू की शादी तय की। पापा के पास समय नहीं था। एलिस चुपचाप देखती रही। विवेक सामान जुटाता रहा। जिस दिन विदाई थी.., जाने की सारी तैयारियां हो गई थीं। पापा बाहर खडे थे। देर होने लगी तो चिल्लाए नीतू को जल्दी लाओ, वरना प्लेन छूट जाएगा। यू डोंट नो द वैल्यू ऑफ टाइम।
एलिस भागकर नीतू के कमरे में गई। वह वहां नहीं थी, फिर वह पूजा घर की ओर दौडी। जीसस की तस्वीर के सामने विवेक चुपचाप बैठा था। नीतू वहीं थी।
भैया, आशीर्वाद नहीं दोगे?
विवेक ने आंसुओं भरा चेहरा घुमाया। एलिस को बाबा का चेहरा और मां के शब्द याद आए। जब संतान आने वाली होती है, तो मां पीडा से कराहती है, सभी सुनते हैं। मगर जब वह जाने वाली होती है तो पिता.. जिसके दुख को कोई नहीं समझ सकता।
पापा तो बाहर खडे हैं आशीर्वाद देने के लिए नीतू, विवेक ने कहा।
पापा तो महज औपचारिकता निभाएंगे। शायद दिखाने के लिए रोएं भी। आई हेट हिम। तुमने मुझे भाई का स्नेह दिया और पापा का प्यार। मुझे तुम ही आशीर्वाद दो। वह रोने लगी।
विवेक ने उसे बांहों में भर लिया। नीतू, एक बात याद रखना। तुम घर से नहीं, एक सराय से जा रही हो। दोबारा यहां मत लौटना। नौकरी लगने पर मैं भी इस सराय को छोड दूंगा।
नीतू ने विवेक से कहा, भैया जब तुम्हारी शादी हो जाए, पापा बन जाओ, तो अपने बच्चों को ख्ाूब प्यार करना। वाइन, वुमेन और करियर के चक्कर में उन्हें पापा की तरह नजरअंदाज मत करना। दुख होता है। हो सके भैया तो मम्मी को भी यहां से निकाल लेना।
एलिस से फिर न कुछ देखा गया, न सुना गया। वह भागकर अपने कमरे में आ गई। बिस्तर पर नोट बिखरे हैं। साथ में एक स्लिप विद थैंक्स टू पापा-नीतू।
उसे लगा सराय में रहने का सारा हिसाब नीतू भर गई है। वह अपनी आलमारी की तरफ बढी। एक कोने में ढेर सारे हजार-हजार के नोट। वह इनका क्या करे, किसे लौटाए। वह फफककर रोने लगी। जिस्म यूं कांपने लगा, जैसे वर्षो से शांत पडी नदी में किसी ने कुछ फेंक दिया हो शायद। शायद यह सब आखिरी सांस के बाद का किराया है, जो एक दिन भरा जाना है। शायद यहीं से एक दिन सब कुछ शुरू हुआ था और यहीं से अंत..।
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