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एकदम बेजान! न टिक-टिक, न टुक-टुक…. (पार्ट -1) – Hindi Story

कहानियां
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साठ साल हो चले हैं अम्मा को इस घर में रहते हुए। उन्हें देख कर साठ साल पहले वाली, लंगडी-धप्पा खेलने वाली पंद्रह वर्षीया किशोरी की कल्पना कठिन है। इसी उम्र में ब्याह करके वह इस घर में आई थीं। तब अम्मा को न तो बाल-विवाह का अर्थ पता था और न सही मायने में विवाह का। गांव से इस शहर के मछरियाई मोहाल में आकर अम्मा ऐसी बसीं कि उन्होंने यहीं अपना छोटा-मोटा गांव बसा लिया। दिलचस्प यह है कि अम्मा का यह गांव उनके घर की दहलीज तक ही सिमटा था। सूखी लकडियों की बाड और बाड के भीतर गोबर से लिपा हुआ घर शहर में होकर भी शहर से अलग-थलग था और आज भी वैसा ही है। अम्मा घर के भूगोल में इतनी रच-बस चुकी हैं कि आंख बंद करके बिना किसी वस्तु से टकराए चहलकदमी कर सकती हैं। इस घर का सब कुछ बरसों पुराना और परिचित जो ठहरा। घर की छत पर आज भी अंगे्रजी खपरैल की छाजन है और आज भी आंगन में बकरी बंधी दिखाई दे जाती है। यह बकरी ही अम्मा के अकेलेपन का सहारा है।


तुम्हारे जाने के बाद मेरा क्या होगा…..


ऐसा नहीं है कि अम्मा के घर में बिजली का कनेक्शन था ही नहीं। दरअसल बिल-भुगतान न कर पाने पर एक बार जो कनेक्शन कटा तो अम्मा ने भी चैन की सांस लेते हुए सोचा कि चलो मुसीबत खत्म हुई! अब इस उम्र में बिल भरना अम्मा के लिए मुसीबत थी। वह देर तक लाइन में खडी नहीं रह सकती हैं और इस संवेदनहीन वातावरण में उन पर दया किसी को आनी नहीं है। यही हुआ था एक बार। अम्मा बिल भरने के लिए लंबी लाइन में लगी थीं। उसी समय कोई नौजवान आया और अम्मा के आगे लाइन में घुसने की कोशिश करने लगा। अम्मा को नागवार गुजरा। उन्होंने नौजवान को डांटते हुए कहा, मैं पहले से लाइन में लगी हूं, इसलिए तुम्हें मेरे आगे नहीं, पीछे खडे होना चाहिए।


अरी डोक्को! पटर-पटर न करो! तुमें काए की जल्दी है? तुमाए लाने तो बस जेई एक काम है, लगी रहो शाम तक लाइन में! (अरी बुढिया, तुम्हें क्यों जल्दी है? तुम्हारे लिए तो बस यही एक काम है) नौजवान ने कहा। उसकी बात सुनकर सभी लोग हंसने लगे। अम्मा ने अपमानित महसूस किया और तय किया कि अब कभी बिल भरने नहीं आएंगी।


इसके बाद एक-दो बार हरकिशन ने बिल भर दिया, लेकिन ऐसा कब तक चलता? हरकिशन को अपने ही बिल भरने की फुर्सत कठिनाई से मिल पाती थी, वह भला अम्मा का बिल कहां तक भरता। बिल नहीं भरा गया तो बिजली काट दी गई। अम्मा बचपन के तेल की ढिबरी वाले युग में लौट गई, वह भी खुशी-खुशी।


अम्मा के घर में बिजली की आवश्यकता है ही किसे! बकरी को अंधेरे में भी दिखाई दे जाता है और अम्मा के लिए अपने घर में ऐसा कुछ भी अपरिचित नहीं है, जिसे रात को देखने के लिए बिजली की जरूरत पडे।


अचानक अम्मा ने नजर उठा कर घडी की ओर देखा। यह घडी अम्मा के उनको सेवानिवृत्ति के समय उपहार में दी गई थी। उनके जीते जी यह चलती रही। उनके जाने के बाद जब तक एक भी बेटा घर में रहा, घडी में बैटरी डलवाता रहा और घडी चलती रही। अम्मा के चारों बेटे अपने-अपने परिवारों के साथ घर से निकल लिए तो घडी भी अम्मा की तरह उपेक्षित हो गई। एक दिन हरकिशन ने ही टोका था, अम्मा, या तो घडी में नए सैल डलवा लो या फिर इसके पुराने सैल निकाल कर फेंक दो, वरना घडी खराब हो जाएगी।


तुम्हीं निकाल दो बेटा! जब तक दीवार पर टंगी है, खराब क्यों हो? वे ऊपर से देखेंगे तो कहेंगे कि बुढिया हमारी घडी भी ठीक से नहीं रख सकी। ऊपर जाकर उनको क्या जवाब दूंगी?


अम्मा बोल उठी थीं।


। तुम भी अजूबा हो अम्मा! हरकिशन हंस पडा और उसने बंद घडी से चुके हुए पुराने सैल निकाल कर फेंक दिए थे। इसके बाद से घडी बिना सैल के दीवार पर ऐसे लटकी रही जैसे किसी इंसान का दिल निकाल कर उसकी धक-धक बंद कर दी गई हो और उसे खूंटे पर लटका दिया गया हो। एकदम बेजान! न टिक-टिक, न टुक-टुक। घडी की ओर देखना अम्मा की आदत में शामिल नहीं है। सूरज निकलने-डूबने से ही समय का अंदाजा लगा लेती हैं। बादलों वाला मौसम होने पर रोशनी की चमक उनके लिए घडी का काम करती है। अम्मा के कमरे में लगी दीवार-घडी न जाने कब से बंद पडी थी। वह तो अभी बंद ही रहती, लेकिन कल ही अम्मा ने किराने वाले की दुकान से सैल डलवा कर घडी चालू कराई है। उनके बेटे हल्के ने एक पोस्टकार्ड में अपनी रेलगाडी के आने का समय जो लिख भेजा था। अम्मा का मन तो हो रहा था कि हल्के की बीवी को परघाने के लिए रेलवे स्टेशन जा पहुंचें, लेकिन इस डर से नहीं गई कि कहीं हल्के को बुरा न लगे। ले-देकर हल्के ही है जो कभी-कभी उनकी खोज-खबर लेता है, वरना अम्मा के बाकी बेटे तो अपने-अपने परिवार के साथ दूसरे शहरों में ऐसे जा बसे कि पलट कर अम्मा की सुध भी न ली। फिर भी पता नहीं क्यों अम्मा को भरोसा है कि उनके मरने पर उन्हें कांधा देने उनके सभी बेटे जरूर आएंगे।


एक अंजान लड़के और अजनबी लड़की की कहानी

एक बार अम्मा बीमार पडीं। उस समय भी अम्मा को लगा कि उनके सभी बेटे उनकी बीमारी का समाचार सुनकर दौडे चले आएंगे। अम्मा ने पडोस में रहने वाले हरकिशन से लिखवा कर अपने चारों बेटों के नाम चिट्ठियां डलवा दीं। हरकिशन और उसकी पत्नी की सेवा से अम्मा ठीक भी हो गई, लेकिन उनका एक भी बेटा वहां नहीं आया। हल्के आया भी तो उनके ठीक होने के हफ्ता भर बाद। उसने दफ्तर में बहुत काम होने का बहाना बनाया, जिसे अम्मा ने भोलेपन में सच मान लिया और खुश हो गई कि चलो देर से ही सही, आया तो। यद्यपि हल्के की बीवी साथ नहीं आई थी, वह विवाह के बाद इस घर से हल्के के साथ जो गई तो फिर पलट कर कभी नहीं आई। अब तो दो बच्चों की मां बन चुकी है। अम्मा ने हल्के के बच्चों को आज तक नहीं देखा है।


इसीलिए अम्मा आज बार-बार खिल उठती थीं कि आज हल्के सपरिवार आ रहा है। यही तो हल्के ने अपनी चिट्ठी में लिखा था। वह चिट्ठी अम्मा ने हरकिशन से पढवाई थी। हरकिशन वैसे है तो कलेक्ट्रेट में चपरासी, लेकिन दसवीं तक पढा हुआ है। हरकिशन की पत्नी आठवीं फेल है, लेकिन चिट्ठी-पत्री वह भी बांच लेती है। लेकिन हल्के की चिट्ठी में कभी-कभी ऐसे शब्द होते हैं, जिनका अर्थ हरकिशन ही बता पाता है-उसकी पत्नी नहीं। हरकिशन का कहना है कि वे शब्द अंगे्रजी के होते हैं। अब अम्मा के लिए तो सब बराबर है।


अम्मा जब पढना चाहती थीं तब उनके मन में गुड्डे-गुडियों की शादी के द्वारा शादी की ललक जगा दी गई। अच्छे-अच्छे कपडे, गहने सबकी तरह उन्हें भी आकर्षित करते थे और शादी होने पर ये सब उन्हें मिलता। इसलिए अम्मा को शादी करने में भला क्या आपत्ति हो सकती थी? पंद्रह की आयु में अम्मा का विवाह किया जाए या न किया जाए, यह बात जिन्हें समझनी चाहिए थी उन्होंने नहीं समझीं। अम्मा ने होश संभाला तो घर-गृहस्थी की उलझनों के बीच। बीमार सास और ग्ाुस्सैल ससुर के अलावा अम्मा को दो जेठ, तीन देवर और दो ननद मिलीं। बेटों के जन्म लेने के बाद अम्मा यह सोचकर खुश हो लेती थीं कि उनके बेटे बुढापे का सहारा बनेंगे। जो चार अक्षर वह नहीं पढ सकीं, उसे पढकर बेटे उन्हें सुनाया करेंगे। बेटों का ब्याह हुआ तो अम्मा की यही आशा पोते-पोतियों पर केंद्रित हो गई। अम्मा ने न जाने कितने सपने बुने थे। पहले अपने बेटों के लिए और बाद में पोते-पोतियों के लिए। अम्मा का भरा-पूरा परिवार समय के बहाव में कैसे बिखरता चला गया, यह अम्मा के लिए अबूझ रहा। अंत में इस घर में शेष बचीं अम्मा और उनकी बकरी।


अम्मा की बकरी जब सिर उठाकर में ऽऽ.. में ऽऽ करती तो अम्मा को वह सहेली सी लगती। अम्मा उससे मन की सारी बातें कह दिया करतीं और कहतीं भी किससे? बेटे जब अम्मा के नाम सौ-दो सौ के मनीऑर्डर भेजते तो अम्मा बकरी के लिए पत्तियों का खर्चा पहले ही अलग कर देतीं। उनका खुद का काम दो रोटी और आधी कटोरी सब्जी में चल जाता। जिंदा रहने के लिए इतना ही तो चाहिए था। बुढापे की यही खूबी होती है कि वह भूख कम कर देती है, जरूरतों को घटा देती है। फिर भी पता नहीं क्यों अम्मा की बडी बहू ने जल-भुनकर कहा था,अम्मा, तुम्हारे पेट का कोठा भर-भर के मैं तंग आ गई हूं।


यह भले ही दस-पंद्रह साल पहले की बात है लेकिन अम्मा की भूख कम हुए तो इससे भी अधिक वर्ष गुजर चुके थे। उनके जाने के बाद से ही अम्मा की भूख आधी रह गई थी। छह रोटियां खाने वाली अम्मा तीन रोटियां खा कर हाथ खींच लेती थीं। लेकिन बडी बहू को तो अम्मा का पेट कोठा ही दिखाई देता रहा, जब तक कि वह इस घर में अलग होकर अपने पति सहित दूसरे शहर में जा नहीं बसी।


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