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दूल्हा बने दीपक की कार उधर आंखों से ओझल हुई और इधर घर की औरतों ने आंगन में अपने रंगारंग कार्यक्रम की तैयारियां शुरू कर दीं। अब तो कल दुलहन के आने तक यहां नाच-गाने और स्वांग का सिलसिला चलता रहेगा। बरामदे में खडी सुमन ने पास खडी ललिता की ओर आंखों ही आंखों में इशारा किया। अपने पूर्वनियोजित कार्यक्रम के अनुसार आंगन में खडी सारी महिलाओं की निगाह बचाकर दोनों छत की ओर खिसक ही रही थीं कि न जाने कहां से छोटी चाची की निगाह उन पर पड गई। उन्हें देखते ही हाथ में पकडा सूप का प्याला एक ओर रख वह चिल्लाई, अरे, पकडो-पकडो.. देखो तो दोनों लडकियां कहां खिसकी जा रही हैं? अरे, रवि की दुलहिन, मंझली बहू, तुम सब की सब खडी क्यों हो, रोकती क्यों नहीं हो उन्हें..। कल तो तुम सब बहुत चकर चकर कर रही थीं कि इस बार सुमन और लल्ती जीजी को नचा-नचा कर पस्त कर दोगी। अरे देखो तो निकल गई दोनों लडकियां।
सचमुच ललिता और सुमन ने ऊपर पहुंच कर जीने का दरवाजा बंद कर लिया और चाची की हडबडी पर अपनी फूलती सांसों के साथ हंसते-हंसते लोटपोट होने लगीं। नीचे महिलामंडल तरह-तरह से उनकी मिन्नतें, खुशामदें करके उन्हें बुला रहा था, लेकिन दोनों छज्जे से अंगूठा दिखाती हुई बाहर की खुली छत पर चली गई। जीने पर चढकर आने और उत्तेजना के कारण दोनों हांफ रही थीं, फिर भी वे खुद को किसी किशोरी से कम नहीं समझ रही थीं। शायद यह भी मायके की चौखट का ही प्रभाव है, जहां कदम रखते ही एक धीर गंभीर प्रौढा स्त्री भी एक चंचल-चपल तरुणी बन जाती है।
चलो देखें, रवि भैया का कमरा खुला हो तो पहले इन भारी-भरकम साडियों से छुट्टी पा लें। घनी कामदार तन्छुई (तन्चोई) से ललिता की भडकीली जामदानी की मन ही मन तुलना करती हुई सुमन बोली। लेकिन रवि के कमरे में ताला लगा देख दोनों का मुंह लटक गया।
अरे, शीला भाभी बडी चालाक हैं। कमरे से बाहर निकलते ही झट से ताला जड देती हैं। सोचती होंगी ननदें कहीं कुछ मार न दें। ललिता ने मुंह बिचकाते हुए कहा।
ऊंह चलो, इसे ही पहने रहते हैं। वैसे भी एक बार पहनने के बाद ड्राइक्लीन तो कराना ही है, लापरवाही से सुमन बोली।
जाती फरवरी की तेज धूप से बचने के लिए दोनों ने बालकनी में चारपाइयां खींच लीं और धम्म से पड गई। दोनों की निगाहें आसमान पर अटक गई और मन शायद कहीं दूर भटक गया। कितने सालों बाद आज दोनों को इकट्ठा होने का मौका मिला था। शादी से पहले तक दोनों चचेरी बहनें कम, पक्की सहेलियां अधिक थीं। पर शादी होते ही ऐसा इत्तेफाक हुआ कि पिछले सत्रह सालों में शायद एक या दो बार दोनों दो-तीन रोज के लिए ही मिल पाई होंगी, वह भी एकदम भीड भरे व्यस्त माहौल में। यों तो इतने बडे संयुक्त परिवार में शादी तो करीब-करीब हर साल ही पडती थी, लेकिन उसी समय कभी लल्ती की ससुराल में कोई काम पड जाता, तो कभी सुमन के सामने कोई अडचन आ जाती। इस बार भाई-बहनों की पीढी में आखिरी शादी थी, इसलिए छोटी चाची ने साल भर पहले से ही ताकीद कर दी थी, इस बार कोई भी लडकी बिना आए नहीं रहेगी। इसीलिए बेटी का इम्तहान होने के बावजूद ललिता तीन दिन की मोहलत लेकर मायके भाग आई थी। सुमन दो रोज पहले ही आ चुकी थी। एक-दूसरे के गले मिलते ही दोनों ने तय कर लिया कि इस बार वे घर की और लडकियों की तरह दीपक की बारात के साथ नहीं जाएंगी और शोर-शराबे से दूर एकांत में ढेर सारी बातें करेंगी। इसीलिए आज नीचे की महिला मंडली से महाभिनिष्क्रमण के बाद दोनों मन ही मन अपनी विजय पर बडी प्रसन्न थी…….
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