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एक अनजान लड़की और अजनबी लड़के की कहानी – Hindi Story (पार्ट -1)

कहानियां
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आप कहां जाएंगे?

जहां तक बस जाएगी।

बस कहां तक जा रही है?

आपको कहां जाना है?

बेरी तक, लेकिन सुना है कि रास्ते में बाढ का पानी इतना चढा है कि बस का निकलना मुश्किल है।


सुना तो मैंने भी है, मगर मैडम आपको ऐसी परिस्थितियों में यात्रा नहीं करनी चाहिए थी। मुझे तो अभी सफर के दौरान ही पता चला है किउस तरफ बाढ का पानी अधिक फैला हुआ है। वैसे मेरा जाना जरूरी है, क्योंकि हमारी तीन माह के लिए हॉस्पिटल में ट्रेनिंग चल रही है।


बस में मेरी सीट पर बैठी एक तरुणी से मेरा साक्षात्कार हो रहा था। सुंदर युवती। फैशनेबल परिधान, किंतु सभ्य-शालीन। नेत्रों का अद्भुत आकर्षण। पतले होंठ जैसे किसी चित्रकार ने अपनी कला का प्रदर्शन कर रखा हो। नाक प्रकृति ने नाप तौलकर लगा रखी थी। उसकी यह छवि हर किसी की आंखों में पहली झलक में ही समा जाने वाली। आवाज में मधुरता। होंठों पर धीमी मुसकान उसका जैसे संपूर्ण परिचय दे गई। बस अपनी यात्रा पर अपनी गति से चल रही थी। दो दिन पूर्व ही राज्य भर में भयंकर बाढ आई थी। गांव-कसबों और शहरों की गलियों, घरों में पानी घुस गया था। बाढ का पानी इतना था कि कहीं-कहीं तो पूरे-पूरे गांव डूब गए। अपने पशुओं को लेकर, थोडे सामान के साथ ही गांव के बाहर टीलों पर डेरा डालना पडा। शहरों में लोग छतों पर सामान रखे बैठे थे। सैकडों जानें चली गई थीं। कुछ लोग बाढ में बह गए, अपनों से बिछड गए। हमारा गांव ऊंचाई पर है, डूबने का प्रश्न दूर था। फिर भी मैं घर वालों को संभालने के लिए अपने गांव चल पडा था। मैंने उस लडकी को सांत्वना देते हुए कहा, आप घबराइए नहीं। मैं आपके साथ हूं। कोई दिक्कत आई तो मैं संभाल लूंगा।


थैंक्यू। वैसे बस धुर तक ही जाएगी। पानी रोड पर अधिक आ गया और बस रुक गई तो? तो देखा जाएगा, जो होगा सो होगा। बस में अन्य सवारियां भी हैं, जो औरों के साथ होगा, हमारे साथ भी होगा। अकेली होतीं तो डरने की बात थी।


बस जैसे-जैसे आगे बढ रही थी, सडक पर बाढ का पानी बढता जा रहा था। बस की गति भी धीमी पडती जा रही थी, लेकिन चालक-परिचालक समेत सभी सवारियों के दिल की धडकन तेज हो रही थी। सफर आधे से अधिक तय हो चुका था। बस वापस जाने की स्थिति में भी नहीं थी। चालक हिम्मत से आगे बढता रहा। कुछ और आगे जाने पर पानी इतना आ गया कि बस ने आगे बढने से मना कर दिया। उसके रुकते ही मन में अनेक प्रश्न खडे हो गए। अब तक सफर तीन-चौथाई कट चुका था। आगे पानी ही पानी था और अभी गांव 10 मील दूर था। अंधेरा हो चुका था।


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सवारियां बस से उतरकर हिम्मत करके पानी में से पैदल हो लीं। दो मील की दूरी पर एक गांव और था। आधी सवारियां तो उसी गांव की थीं। इतने पानी में पैदल तथा लंबे सफर के बारे में सोचकर युवती घबरा गई।


मैंने हिम्मत बंधाते हुए कहा, देखिए, घबराने से काम नहीं चलेगा। आप इस जंगल में पानी के बीच रात भर बस में तो नहीं रह सकेंगी, चलना तो पडेगा ही। एक औरत भी तो यहां है। घबराने की बात नहीं। दो मील पर एक गांव है। आगे केलिए शायद वहीं से कुछ वाहन मिल जाए। लेकिन इतने पानी में सडक पर कहीं गड्ढा हुआ तो..।


मैडम! आपको बुरा न लगे तो मेरा हाथ पकड लीजिए, मुझे तैरना आता है। आपको डूबने नहीं दूंगा। आप बैग को एक हाथ से ऊपर उठाइए तथा दूसरा हाथ मुझे थमा दीजिए।


थैंक्यू। उसने अपना हाथ मुझे पकडाते हुए आभार व्यक्त किया। हम दोनों अन्य लोगों के पीछे-पीछे संभल कर चल पडे।


शादी की है खरीदा नहीं है मुझे….!!


अगर बुरा न लगे तो मैं आपका नाम जान सकता हूं।

मेरा नाम शालिनी है। घर वाले मुझे..।

शालू कहते हैं। है ना?

हां! आपने सही अंदाजा लगाया। कहती हुई वह मुसकराई।

उदास चेहरे पर क्षणिक मुसकान भी अच्छी लगी। मैंने उस मुसकान में मिठास घोलते हुए पूछा क्या मैं आपको शालू कह सकता हूं?

ओ श्योर..। आपने अपना नाम नहीं बताया।


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आशीष। लेकिन घर वाले मुझे प्यार से आशू कहते हैं..। बढते हुए अंधेरे को देख कर अगले ही क्षण शालू के चेहरे पर चिंता की रेखाएं खिंच गई। बाढ के पानी को चीरते हुए हम अन्य लोगों से दस-पंद्रह कदम पीछे-पीछे आगे बढ रहे थे। जैसे-जैसे बाढ का पानी आगे सडक पर बढता गया, शालू मेरे हाथ को मजबूती से पकडती गई। हाथ के कसाव के साथ ही मेरा दिल भी धडकता चला गया।

घना अंधेरा था, हम थोडी दूर चले थे। पूरे आकाश को बादलों ने घेर कर चांद-तारों को अपने आगोश में ले लिया। बादलों की गडगडाहट के साथ चमकती बिजली जहां मन में डर जगा रही थी, वहीं अपनी रोशनी से बार-बार हमें रास्ता भी दिखा रही थी। थोडी-थोडी ठंड भी महसूस होने लगी थी।

हम धीरे-धीरे पानी को मापते हुए चल रहे थे। आगे-आगे चलने वाले कुछ गांव वाले पीछे मुडकर हमें बार-बार देख रहे थे। शायद वे सोच रहे थे कि हम दोनों संबंधी ही हैं।

उन्होंने कई बार पीछे मुडकर कहा, आप हमारे साथ चलिए। हमने कहा, हम आपके पीछे-पीछे आ रहे हैं। आप हमारी चिंता न करें, हम आ जाएंगे।

थोडा आगे बढे तो सडक पर एक हलका-सा गड्ढा आ गया। शालू का पैर उसमें गया तो वह संतुलन खो बैठी और हलकी-सी चीख के साथ वह आगे गिरने लगी। मैंने तुरंत उसे अपनी बांहों में संभाल लिया। थैंक्यू कह कर उसने चैन की सांस ली। कुछ देर पहले तक हम दोनों अजनबी थे, लेकिन अब हमारे बीच एक अजीब आकर्षण-सा पनपता जा रहा था। मेरी नीयत बुरी नहीं थी, बस उसके प्रति एक लगाव-अपनापन सा महसूस होने लगा था। चाहने लगा कि इसे सुरक्षित मंजिल तक पहुंचा सकूं। मन में कहीं एक चाहत पैदा होने लगी।

एक अनजान लडकी का अजनबी लडके के साथ यूं अनिश्चित सफर, हलके सर्द मौसम में हथेलियों का गर्म स्पर्श कहीं मन में भावनाएं जगा रहा था। बादलों की गडगडाहट से भी ज्यादा मेरे मन में भावनाओं और विचारों की टकराहट हो रही थी।

हम पानी में संभल-संभल कर कदम रखते हुए बढ रहे थे। बूंदें आरंभ हो गई तो शालू और घबरा गई। मैंने समझाया, शालू! घबराने से बात नहीं बनेगी। आगे बढने के सिवा हमारे पास कोई चारा भी नहीं है। गांव वाले भी साथ में हैं। अब पानी, बारिश और ठंडी हवा को तो सहन करना ही पडेगा।


बारिश धीमी थी, लेकिन इतनी तो थी ही कि हम पूरी तरह भीग जाते। शालू ठंड से कुछ कांपने-सी लगी थी तो मैंने अपने बैग से शर्ट निकाली और शालू की ओर बढा दी, और कुछ नहीं है तो यही सही, कुछ तो बचाव होगा। वह चुपचाप रही, लेकिन चमकती हुई बिजली की रोशनी में उसकी टिमटिमाती आंखें स्नेह से भरकर मुझे देख रही थीं। फिर थोडा मुसकरा कर उसने नजरें हटा लीं। सफर अचानक सुहाना लगने लगा, तभी जोरदार गर्जन हुआ। अकस्मात बिजली के इस प्रचंड रूप से घबराई शालू मुझमें सिमट गई। लेकिन उतनी ही तेजी से सॉरी कहते हुए उसने खुद को मुझसे अलग किया। बादलों और बारिश वाली गहराती शाम और चमकती बिजली में किनारे के खेतों के झाड भुतहा प्रतीत होने लगे थे। शालू बार-बार पूछती, ये अजीब-सी आकृतियां क्या हैं? मैंने समझाया, डरने की जरूरत नहीं है। ये झाड-झंखाड रात में ऐसे ही डराते हैं, खासकर विपरीत मौसम में।


अब हमें आगे आने वाले गांव की बेहद कम रोशनी वाली बिजली दिखाई दी तो थोडा संतोष हुआ। गांव पास आया तो हमने लोगों से वाहन के बाबत पूछा, लेकिन हर बार नकारात्मक उत्तर मिला। एक साहब ने कहा, आखिरी बस जा चुकी है। छोटे वाहन भारी पानी जमाव के कारण नहीं चल रहे।


हमारी बेरी जाने की योजना एक बार फिर ध्वस्त होती नजर आई। रात गहरा गई थी। वैसे भी हम पहले ठंडी हवा और हलकी बारिश की चपेट में आ चुके थे। अब तक लगभग हमारे साथ चल रहे हमसफर इधर-उधर होने लगे थे। कुछ तो इसी गांव के थे। बेरी तक जाने वाले दो-तीन यात्री ही और थे। एक स्त्री को भी देखकर शालू का हौसला थोडा बढा।


सफर अभी 15 किलोमीटर और था। हम लोग एक चाय की दुकान पर खडे हो गए। शुक्र है दुकान अभी खुली हुई थी। मैंने दो कप चाय बनवा ली। चाय की चुस्कियों से शरीर में कुछ गर्माहट आई। दुकान की भट्टी के पास लगकर हमने गीले कपडे सुखाए। करीब एक घंटा और बीत गया तो बेरी पहुंचने की संभावना और कम हो गई। दुकानदार बोला, बाबू जी! अब तो जाने का खयाल छोड ही दें, क्योंकि अब कोई सवारी नहीं मिलेगी। आपके साथ एक स्त्री भी है, सडक पर पानी भी ज्यादा है। आप यहीं रात गुजार सकते हैं। मेरे पास बिस्तर तो है नहीं, रात बैठकर ही बितानी होगी। दो खेस हैं, दोनों बहनजी को मैं ये खेस दे दूंगा।


मुझे दुकानदार की बातों में वजन लगा। शालू ने सकुचाते हुए कहा, लेकिन यहां हम रात कैसे बिता सकते हैं?


और कोई चारा भी तो नहीं। हां, इस गांव में मेरे दो-तीन दोस्त हैं। अगर आप चाहें तो उनके घर जा सकते हैं। वहां रहने-ठहरने की व्यवस्था हो सकती है।


लेकिन आप उन्हें मेरे बारे में क्या बताएंगे?


वह मुझ पर छोड दो।

नहीं, इतनी रात गए क्यों किसी को तंग किया जाए।

दोस्त के घर को आप मेरा ही घर समझें।

नहीं, अब तो जैसे-तैसे यहीं रात बिता लेंगे।

यहां एक महिला और हैं, मुझे डर नहीं लगेगा। शालू की बात भी ठीक थी। हमारे पास बैठी दूसरी स्त्री अब तक यह नहीं समझ पाई थी कि हम-दोनों एक-दूसरे के लिए अजनबी हैं। उसने अबकी आशा भरी नजर से हमारी ओर देखकर कहा, आप लोग हैं तो मैं भी यहां निश्चत होकर ठहर जाऊंगी।

मेरे, शालू और उस स्त्री के अलावा वहां दो अन्य युवक भी बैठे थे, जो हमारी तरह आगे जाने वाले थे। दुकानदार ने नीचे बोरियां बिछा दी थीं। शालू को ओढने के लिए खेस मिल गया। घंटे भर बैठे-बैठे सभी की आंख लग गई। दुकानदार भी अंगीठी के पास अधलेटा सा सिकुड कर सो गया।


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शालू की आंखों में नींद नहीं थी। उसके मन के किसी कोने में अनजानी जगह पर ठहरने का डर था। मैंने उसकी आंखों में तैरती उदासी को देख लिया था। सांत्वना देने के लिए मैंने उसके हाथ पर हाथ रखा। उसने अपनेपन के भाव से गर्दन हिला दी। दुकान का दरवाजा खुला था। बाहर काली घनी रात, सुनसान माहौल। सन्नाटे को चीरती मेढकों की टरटराहट सुनाई दे रही थी तो झींगुरों ने भी अपना राग छेड रखा था। लालटेन शांत होकर एक लौ से जल रही थी।

यही लौ ही थी जो सभी को निश्चत होकर सुला रही थी। यही लौ मुझे बार-बार शालू का उदास, शांत या बेचैन चेहरा दिखा रही थी। इस लौ की तरह मेरा मन भी बार-बार प्रेम भाव से भर जा रहा था। यह वही चेहरा था जिसकी मैं वर्षो से तलाश में था, जिसे मैं कल्पनाओं में निहारता था। रात धीरे-धीरे बीत रही थी। लालटेन का तेल धीरे-धीरे कम हो रहा था। खत्म हो गया तो शालू को डर लगेगा। मन विचारों के ताने-बाने बुन रहा था। मुझे अपनी नहीं, उसकी चिंता है। वह मेरी क्या लगती है? कुछ नहीं। फिर भी मन क्यों इतना उलझ गया है कि सिर्फ उसी की फिक्र करने लगा है। कौन किसी अजनबी की इतनी चिंता करता है। हां, मानवता के नाते अवश्य दूसरों की चिंता हो जाती है। लेकिन यहां तो कुछ घंटों का साथ जैसे सदियों के साथ का अनुभव करा गया था।

यह घर ही तो है हनीमून डेस्टिनेशन


नींद से लडते-लडते वह सो गई थी। मेरी आंख भी कब लगी, पता नहीं चला। हलकी-हलकी सर्दी बार-बार जगाती, उनींदी आंखों से सबको देखता और फिर सो जाता।


न जाने कब शालू ने मेरे कंधे पर अपना सिर रख दिया, पता नहीं। मुझे महसूस हुआ तो आंखें खुलीं। मैं फिर सो गया। अब आंखें खुलीं तो उजाले के संकेत मिले। सुबह हो रही थी। सूरज की किरणें नभ मंडल में अपना जाल फैला रही थीं। खगवृंदों का कलरव प्रारंभ हुआ तो मैंने शालू को उठा दिया। चाय वाला तथा अन्य सभी उठ गए। चाय वाले ने अपनी लालटेन बंद की और अंगीठी सुलगा दी। हमारे कहने पर उसने चाय तो स्टोव पर बना दी। हमने दुकानदार के पैसे सधन्यवाद चुका दिए। शालू ने घडी देखते हुए कहा, बस कब आएगी?


समय तो सात बजे का है, लेकिन..।


लेकिन क्या?


बाढ की स्थिति में आएगी या नहीं, कहा नहीं जा सकता।


न आई तो..।


कोई न कोई वाहन तो आ ही जाएगा, घबराइए नहीं, आप मेडिकल तक पहुंच जाएंगी…… कहानी का अगला भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें


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