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उस दिन के बाद से उन दोनों के बीच वह मौन संवाद भी खत्म हो गया था, जिसे उसने अतीत से बचा रखा था। उनके चेहरे से उदासी और कडवाहट के परचे को बखूबी पढने लगी थी वह, पर कब तक अनजान बनने का ढोंग करती, कब तक उनकी बडी-बडी आंखों से खुद को बचाती। अंकुश की तरफ से उसने शब्दों की प्रतीक्षा बंद कर दी थी। क्या है उनके भीतर, वह नहीं जानती। क्यों वह अपने भीतर की जलती हुई लपटों को उस पर डाल देते हैं। उनका मौन तृप्ति को भीतर से कचोट देता है। इसे कहानी की शुरुआत कहें या सुखों का अंत..।
जब अंकुश उसे देखने आए थे, साथ में उनका छोटा भाई पलाश भी था जो तृप्ति का सहपाठी था। दोनों में दोस्ती कुछ ऐसी थी कि तय किया गया कि वाद-विवाद प्रतियोगिता में जो भी हारेगा, वह जीतने वाले को किसी एक विषय में परफेक्ट बना देगा, परिस्थितियां चाहे जैसी भी हों। सौदा मजेदार था, लेकिन तृप्ति मेहनत वाले कामों से अकसर दूर रहती, मस्ती में काम करती। प्रतियोगिता शुरू होने जा रही थी। पलाश के चेहरे पर जहां खौफ था, वहीं तृप्ति का चेहरा बेखौफ। पलाश स्टेज पर आया और अपने “श” की वजह से हार गया। जब उसे शाबाश बोलना होता तो साबास बोलता। शाकाहारी को साकाहारी और शकुंतला को सकुंतला। तृप्ति वाक्यांशों का सही प्रयोग करके प्रतियोगिता जीत गई। कॉन्ट्रैक्ट के मुताबिक तृप्ति ने गणित सीखने की फरमाइश की और बेचारे पलाश ने जी-जान से तृप्ति को एच.सी.एफ, स्पीड डिस्टेंस एंड टाइम, परसेंटेज निकालनी सिखाई। इस निरंतर साथ से दिल में पलाश के लिए एक जगह बन गई थी। कंधे आपस में छूने लगे, कभी वह तृप्ति के दुपट्टे पर बैठ जाता और दुपट्टा खींचते वक्त उसका पूरा दुपट्टा ही गिर जाता, तब पलाश खुद उठकर उसका दुपट्टा संभाल देता। छोटी-छोटी चीजें तृप्ति के लिए बहुत मायने रखती थीं, लेकिन पलाश तो चंचल, अल्हड, नटखट था। उसे इन सब बातों से कोई फर्क नहीं पडता था। न तो वह रोमांटिक फिल्में देखता, न मिल्स एंड बूंस के उपन्यास पढता। उसके पास तो बहस करने के लिए राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम होते, पढने को पत्र-पत्रिकाएं होतीं। पलाश तृप्ति को राजनीति से संबंधित बातें बताता और तृप्ति उसे रोमानी उपन्यासों की कहानियां चटकारे ले-लेकर सुनाती।
खूबसूरत-सी यह दोस्ती शायद प्रेम का रूप लेती, लेकिन अगले कुछ दिनों में ही अंकुश का रिश्ता तृप्ति के लिए आ गया। अंकुश के घरवालों ने पहली नजर में तृप्ति को पसंद कर लिया। एक महीने के भीतर ही वह उस घर की बहू बन गई। तृप्ति और अंकुश के स्वभाव में बेहद फर्क। तृप्ति हंसमुख और चंचल थी तो अंकुश गंभीर, चिडचिडे स्वभाव के। पहली ही रात उन्होंने अपने कडवेपन का सबूत दे दिया था। तृप्ति अपने कमरे में बैठी उनका इंतजार करती रही। उसे नींद आ ही रही थी कि अंकुश आए और बदबू का एक भभका उनके साथ ही भीतर घुसा। आते ही वह बिस्तर पर औंधे मुंह गिरे और कुछ ही देर में गहरी नींद में डूब गए। न जाने रात के किस प्रहर में अंकुश ने तृप्ति को टटोलना शुरू किया। उसे महसूस हुआ जैसे उसके बदन में हजारों बिच्छू रेंग रहे हों। वह पसीना-पसीना हो गई, अपनी चीख को उसने दोनों हाथों को मुंह पर रखकर किसी तरह रोका। अंकुश तो फिर सो गए, लेकिन तृप्ति सोचती रही कि क्या पुरुष को सुख बांटना नहीं आता? वह हर चीज को हडपना क्यों चाहता है। क्या उसे बस छीनना ही आता है? एक वाक्य भी तो प्रेम से नहीं बोला अंकुश ने उससे, फिर कैसे उन्होंने पत्नी पर हक मान लिया! जानती है यदि वह कुछ कहते भी तो शब्दों का मंतव्य बडा कटु होता। जब तक वह एकतरफा संघर्ष चलता रहा, उसकी आंखों और मुंह में रेत की तरह कुछ किरकिराता रहा। चेहरे पर कोई भाव नहीं, शरीर लावा उगल रहा था। क्या वह पूरे मन से अंकुश की नहीं हो सकी है या फिर..?
खबरदार जो मेरी मां को बूढ़ी कहा तो – Hindi stories !!
अगर यही वैवाहिक जीवन का सुख है तो फिर शायद इस विवाह को वह नहीं निभा सकेगी। शादी के बाद की वह मनहूस रात बडी मुश्किल से कटी। किसी तरह सुबह हुई तो वह नहाकर किचन में गई, नाश्ता टेबल पर लगाया तो पता चला कि अंकुश जा चुके हैं। शायद पलाश ने उसके मन के भाव पढ लिए थे। वह टेबल पर बैठा, नाश्ता किया, साथ ही तृप्ति के खाने की खूब तारीफकी। फिर पलाश ने उसे पूरा घर दिखाया। शादी की सीडी भी दोनों ने साथ मिलकर देखी। पलाश से वह हर विषय पर बेझिझक बातें कर लेती थी। दोस्तों और प्रोफेसरों के किस्से पलाश चटखारे लेकर सुनाता तो तृप्ति हंसे बिना नहीं रह पाती। अंकुश के आने का कोई समय नहीं था। वह देर रात गए आते, तृप्ति खाने पर इंतजार करती रहती। चार महीने में उसे याद नहीं कि कभी अंकुश ने एक बार भी उसके खाने की तारीफ की हो या उसकी किसी बात की सराहना की हो। शादी के बाद तो जैसे वह गुनगुनाना ही भूल गई थी। अंकुश के पास समय नहीं था। अब पलाश भी ट्यूशन पढके देर से घर आता। बच जाता तो गहरा सूनापन, जिसमें मां के चेहरे पर जमे बूढे शैथिल्य के बीच दिन भर वह अपनी कच्ची आंखें इधर-उधर भटकाती फिरती। कठिन क्षण थे वे, कोई आत्मीय स्पर्श नहीं। उसने बी.एस-सी. की थी, आगे पढने की चाह भी थी। शादी से पहले ही यह बात तय हो गई थी कि तृप्ति जो करना चाहे, करे। लेकिन अब कोई बात भी नहीं करता था। अंकुश तो उसकी परछाई से भी दूर रहते। मां ने विदाई के वक्त यही परंपरागत वाक्य तृप्ति से कहा था कि ऐसा कोई काम कभी मत करना जिससे घर के संस्कार धूमिल पडें..।
सुबह उठी तो उसका मन बेहद दुखी हुआ क्योंकि सास उसके उठने से पहले ही उठ गई थीं। वह अंकुश का नाश्ता तैयार करके कपडे धो रही थीं। धीरे-धीरे रोज का यही नियम हो गया, तृप्ति के उठने से पहले ही सास उठकर अंकुश के सारे कार्य कर देतीं। पता भी नहीं चलता कि वह कब उठ गई। वह लाख कोशिश करती, लेकिन मां पांच बजे तक काम खत्म कर चुकी होतीं, तृप्ति को बिना नहाए किचन में घुसने की इजाजत नहीं थी। आज जब किचन में आई तो राज की तरह सारा काम हो गया था। अंकुश टिफिन लेकर निकल रहे थे, उन्होंने तृप्ति को तीखी नजरों से देखा, फिर पैर पटकते हुए बाहर निकल गए। वह अंकुश से कहना चाहती थी, मां चार बजे ही किचन में चली आती हैं और मुझे बिना नहाए किचन में आने की इजाजत नहीं है। क्या मैं तीन बजे ही नहा कर किचन में जाऊं? रात में सोऊं नहीं। कहती किससे, सुनने वाला तो जा चुका था। उसे असहनीय पीडा होती, लाख चाहने पर भी उस भीषण आवेग को कहां रोक पाती। मां कुछ नहीं कहतीं, सारा काम खुद करने बैठ जातीं। कोई सहेली आती तो भी वह काम न छोडतीं। तृप्ति को शर्म आती, मां कडकडाती ठंड में भी बर्तन धोती रहतीं।
अंकुश तो हमेशा ही घुटे-घुटे रहते, केवल रात में उनके भीतर का पुरुष जागता। तृप्ति बचना चाहती, लेकिन कुछ न कर पाती। वह चीखना-चाहती, उन्हें दूर फेंक देना चाहती, क्या यही है मेरी इज्जत तुम्हारी नजरों में, मैं तुमसे बात करना चाहती हूं। एक साझेदारी का हक, छीनने का नहीं-बराबरी का हक, खीझ का नहीं-प्यार का हक, अंकुश मुझे प्यार चाहिए..। पर उसकी आवाज अंकुश तक न पहुंच पाती। एक दिन सुबह उठते ही तृप्ति को झकझोरते हुए वह बोले, आज ऑफिस से कुछ लोग आ रहे हैं दोपहर के खाने पर, खाना स्वादिष्ट बनाना। मेरी बेइज्जती नहीं होनी चाहिए..समझीं! कहकर वह चल दिए। सुबह-सुबह अंकुश के इस व्यवहार ने तृप्ति को अपमानित महसूस करने का एक और मौका दे दिया। उठी, बाथरूम का दरवाजा जोर से बंद करके वॉश बेसिन खोलकर जोर से फफक पडी। लगातार बहते पानी की आवाज उसे सुखद प्रतीत हो रही थी, वह अपना अपमान, क्षोभ, पीडा सब कुछ उस पानी में बहा रही थी। हर रात एक नए यातना गृह में अंकुश उसे ठेलता, उसका स्पर्श तृप्ति के भीतर की औरत को जगा नहीं पाता, सिर्फ जुजुप्सा पैदा करता।
उस शाम अंकुश दोस्तों के साथ जल्दी घर आ गए। सबके सामने उनका रूप बदल जाता। वह संवेदनशील होने का दिखावा करते। उस दिन माहौल थोडा सहज था, तृप्ति भी खुश थी, रात में उसने अंकुश से कहा, एक अच्छी फिल्म लगी है, कल ऑफिस से जल्दी घर आ जाओ तो फिल्म देखने चलें। इतना कहना था कि वह भडककर बोले टीवी में इतनी फिल्में आती हैं, मन नहीं भरता तुम्हारा..? दिन भर बैठी रहती हो, बाहर निकलकर देखो, पसीना बहाओगी, तब पता चलेगा पैसे का मूल्य। अगले दिन तृप्ति जिद में पलाश के साथ फिल्म देखने चली गई। गई तो जिद में थी, लेकिन लौटकर एक नया तूफान झेलना पडेगा, यह भय भी था। पलाश ने उसे सामान्य बनाने की बहुत कोशिश की, लेकिन तृप्ति के चेहरे पर उदासी के भाव कम नहीं कर पाया। तृप्ति की शादी के बाद पलाश से संबंधों में इतना ही फर्कआया था कि पहले वह नाम लेता था और अब नाम न लेकर सीधे बातचीत शुरू कर देता। भाभी जैसा संबोधन उसने तृप्ति को नहीं दिया था।
तृप्ति के मना करने के बावजूद घर लौटते हुए पलाश ने आइसक्रीम खरीदी, पैदल चलते हुए वे घर तक पहुंचे। घर में मां और अंकुश चाय पी रहे थे। तृप्ति कमरे में चली गई और पलाश वहीं बैठ गया उनकी कडवाहट दूर करने। जाते हुए तृप्ति ने दोनों की शक्लें देखी, उनमें दृष्टिहीन क्रोध था। पलाश ने अवश्य वहां का माहौल बदल दिया होगा, लेकिन क्या फायदा। कुछ देर बाद अंकुश कमरे में आए तो उनके भीतर ज्वालामुखी फूट रहा था, फिल्म देखने का इतना ही शौक था तो सिनेमाहॉल में ही रहतीं, घर क्यों लौटीं!
तृप्ति चुपचाप नाइटी ढूंढती रही। उसे मालूम था आलमारी में नाइटी नहीं है, लेकिन वह ढूंढ रही थी। शायद अंकुश का सामना नहीं करना चाहती थी। वह चाहती थी अंकुश चुप हो जाएं, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। अंकुश ने तृप्ति की तरफ से जवाब न पाकर गुस्से में उसका हाथ जोर से घुमाया और पीछे को मोड दिया। तृप्ति दर्द से भरकर चीख उठी, मारना चाहते हो मुझे? मारो। झगडे की आवाज सुनकर लोग दरवाजा खटखटाने लगे थे। अंकुश उसे लगातार मार रहे थे..। वह जानती थी मुंह खोलकर उसने अंकुश के राक्षस को उजागर कर दिया है और आज के बाद कभी इस घर में चैन से नहीं रह पाएगी। हर नजर उस पर उठेगी, सब उसे पतिता की तरह देखेंगे..। अंकुश गुस्सा पूरी तरह निकालने के बाद कमरे से बाहर चले गए, रह गई तृप्ति और उसके मन-शरीर की चोटें। घर की गतिविधियां रुक गई थीं। तृप्ति को सास की ओर से दूसरे युद्ध की भी अपेक्षा थी और वह इसके लिए भी तैयार बैठी थी। रात हो गई, वह वैसी ही पडी रही, अपने जख्म देखती हुई, कब नींद आई, पता नहीं चला। सुबह धूप ने कमरे में रौशनी फैला दी तो बेहोशी भरी नींद से वह जागी। शरीर दर्द से टूट रहा था। मन में घुटन सी थी। घडी सुबह के दस बजा रही थी। अंकुश शायद ऑफिस जा चुके थे। घर में खामोशी थी, बाहर से आवाजें आ रही थीं-मटर, गोभी, पालक, फल ले लो। उसने अपनी आंखें बंद कर लीं। अचानक दरवाजा खुलने की आवाज आई। एक जानी-पहचानी आवाज उसकी ओर बढी- पैरों के ठीक पास। पलंग पर खटका हुआ, तृप्ति यह क्या हाल बना रखा है? उसकी आंख खुल गई। उठने की कोशिश की तो वह उसे रोकते हुए बोला, लेटी रहो, मत उठो तृप्ति ने उसकी ओर नहीं देखा। वह तृप्ति के बालों को सहलाते हुए बोला, क्यों सहती हो यह सब, पागल हो तुम? उसका हाथ पकडा, चोटों को सहलाया, आंखें मूंदे-मूंदे ही तृप्ति को लगा मानो उसकी पीडा खत्म हो रही हो। कठोर मन कब पिघल गया, पता ही नहीं चला, रुका हुआ बांध जैसे टूट पडा, वह पलाश के सीने से लगकर फूट-फूटकर रोने लगी, पलाश ने जोरों से उसे बांहों में भींच लिया, पता नहीं घर में कौन था-कौन नहीं, कोई देख लेता तो शायद अब तृप्ति को डर न होता। पलाश ने उसके माथे का चुंबन लिया तो उसने आंखें खोल दीं। दोनों ने एक-दूसरे को देखा, जैसे बरसों बाद मिले हों, लगा जैसे अनजान सी शक्ति मन और शरीर में आ गई है। पलाश की आंखों को देखकर अब हर चुनौती का सामना करने के लिए तैयार थी। पलाश ने उसका चेहरा अपनी ओर घुमाते हुए बोला, अब तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा, मैं भी देखूं कि किसकी हिम्मत है जो तुम्हें छू भी सके। अच्छा अब तैयार हो जाओ, मैं तुम्हें एक पल के लिए भी यहां नहीं रहने दूंगा। कहता हुआ पलाश चला गया, वह पलाश के स्नेह भरे स्पर्श के एहसास से भरी बैठी रह गई। असीम सुख के साथ उसने अपनी आंखें मूंद लीं। आंखें खुलीं तो कमरे में मंद रोशनी थी। छोटे से नीले बल्ब का प्रकाश फैल रहा था, उस प्रकाश में पलाश की महक घुली थी। प्रकाश, पलाश कितने एक जैसे हैं दोनों नाम, वह सोचने लगी, अजीब से सुख का एहसास हुआ। कुछ खटकने की आवाज आई। मेज पर जोर से कुछ गिरा, इस पर साइन कर दो।
Hindi Stories – प्यार कोई खेल नहीं
यह अंकुश थे। कुछ देर के लिए वह अनसुना किए लेटी रही। फिर जैसे असीम ताकत आ गई हो, उसने पेन उठाया, आत्मविश्वास से कागज पर साइन कर दिए। शायद तलाक के कागज थे। अंकुश ने उसे ऐसे देखा, जैसे विश्वास ही न हुआ हो। तृप्ति ने सूटकेस उठाया, आलमारी से कपडे निकाले, एक-एक करसूटकेस में भरती रही। जानती थी अंकुश की नजरें उस पर ही गडी होंगी। सूटकेस उठाया और चल दी। निकलते वक्त एक बार मुडकर देखा तो अंकुश एक झगडालू, जिद्दी, चतुराई से अपरिचित खेल में हारे हुए बच्चे सरीखे दिखे।
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