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खबरदार जो मेरी मां को बूढ़ी कहा तो – Hindi Story

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मम्मा, दूध पिये बगैर मत सोना, मैं जल्दी से बना लाती हूं.., मुझे ऊंघते देख मेरी बेटी श्रुति उठ कर रसोई की ओर भागी। समय के साथ भूमिकाएं भी बदल गई थीं, जिस बेटी को मैंने कभी दूध पिये बगैर सोने नहीं दिया, अब वह मेरी सख्ती मुझ पर ही लागू किया करती थी। कुछ दिनों से जाने क्या हो गया था, रात के नौ बजते न बजते मेरी नींद से बोझिल उबासियां पंख पसारने लगती। मेरे पति श्रीनिवास जिन्हें मैं प्यार से श्री कहा करती थी, आंखों में शरारत भर चुटकियां लेते, श्रुति, लोग जवानी में भरपूर नींद लेते हैं और बुढापे में रातें जागते हुए काटते हैं, मगर तुम्हारी मां है कि जवानी में रातों को भटकती आत्मा की तरह घर में चक्कर काटा करती थी और अब बुढापे में बच्चों की तरह बेसुध नींद लेती है..।


खबरदार जो मेरी मां को बुड्ढी कहा तो..! श्रुति प्रबल स्वर में झूठी नाराजगी जाहिर करती और फिर पूरे वातावरण में हास्य ध्वनियां बिखर जातीं। बात सच थी, जब से बेटे विश्वास को आर्मी मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिला था और श्रुति का एक परिचित संभ्रांत परिवार में रिश्ता तय हो गया था मैं बेफिक्र..बेसुध हो चली थी..। जी भर जीती थी और छक कर सोती थी। जीवन के इस पडाव पर आकर लगा था जैसे साये की तरह मेरे साथ चल रहे उन बदनसीब चेहरों के गहरे मकडजाल से निजात पा ली थी मैंने।


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वह मलिन..उदास..चेहरे .. किसी गैर के नहीं, बल्कि मेरी तीन बडी बहनों और माता-पिता के थे जो बार-बार मेरे जेहनी पर्दे पर किसी प्रेत की तरह चक्कर लगाकर मुझे अतीत के उस घुटन भरे गलियारे में घसीट ले जाते, जिसकी जमीन पर एक षोडशी नवयौवना आनंदी का चेहरा भी रेंगता था। आनंदी..यानी मेरा चेहरा..। कॉलेज में खिला उजला-सा प्रदीप्तमान व्यक्तित्व घर की चौखट पर पांव रखते ही धुंधला जाता, जब अपने चारों ओर बिखरे उन फीके और बेरौनक चेहरों को देखती। उनमें पहला चेहरा मेरी बडी दीदी का था। उम्र के 34वें पायदान पर खडी उनकी शख्सियत किसी गहन चिंतनवादी बुद्धिजीवी सरीखी थी। परिपक्वता और गंभीरता का आवरण ओढे मेरी प्राध्यापिका दीदी ने खुद को मनोविज्ञान विषय की गहराइयों में डुबो दिया था। अविवाहित रहने की पीडा और एकाकीपन के एहसास को दफन करने का तरीका भी शायद उन्होंने मनोविज्ञान की मोटी-मोटी किताबों से खोज निकाला था। बाबू जी उनके लिए कम दहेज से मिलने वाला सजातीय खानदानी वर खोजते-खोजते थक गए थे, मगर कहीं भी बात न बन सकी। उम्र बढती गई, बाद में एक-दो सजातीय विधुरों से भी बात चली, मगर सजातीय वर होने की शर्त मां छोडने को तैयार नहीं थीं और विधुर के संग फेरे लेना दीदी को मंजूर नहीं हुआ। अंतत: विवाह नहीं करूंगी के उद्घोष के साथ उन्होंने विवाह की समस्त संभावनाओं को समाप्त कर दिया। वैसे तो एक दिन यह स्वयं ही होना था, मगर इस औपचारिक उद्घोष से मां-बाबूजी को वर खोजने में निरंतर मिल रही असफलता की ग्लानि से मुक्ति मिल गई। उसके बाद उनके गंभीर चेहरे पर छाई गहरी खामोशी से मुझे भीतर पनप रहे किसी भयंकर बवंडर के संकेत आते थे।

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दूसरा चेहरा मेरी मंझली दीदी का था। उन्हें बडी दीदी की तरह किताबों में डूबने का शौक नहीं था, वो कॉलेज में पढी थीं तो बस इसलिए कि उनके पास घर से बाहर निकलने और समय बिताने का कोई अन्य विकल्प मौजूद नहीं था। बडी दीदी से विपरीत मंझली दीदी का व्यक्तित्व किसी के भी दिल को धडकाने के लिए काफी था, सांचे में ढली कमनीय काया, धीमा मिसरी घुला स्वर, मादक अदायें..चाल-ढाल ऐसी कि किसी श्रृंगार रस के कवि की प्रेरणा बन जाए। यौवन के आगमन के साथ ही अच्छे-खासे आशिकों की फौज खडी कर ली थी उन्होंने और इस अभिमान से उनका चेहरा दमकता था..। मगर घर के संस्कारों और रूढिवादिता का उन पर ऐसा प्रभाव था कि कभी मर्यादा की लक्ष्मण रेखा पार नहीं कर सकी। उनके दिल में एक दृढ विश्वास था कि उनके जैसी आकर्षक सुंदरी को तो बिना दहेज के ही कोई राजकुमार सरीखा वर अरेंज मैरिज कर सफेद घोडे पर बैठा ले जाएगा और राज कराएगा, मगर..समय के साथ इस विश्वास की जडें हिलने लगीं और एक दिन तो पूरी तरह से उखड गया। तेजी से बढती उम्र के साथ मंझली दीदी के चेहरे से आत्मविश्वास लुप्त होता जा रहा था, हर दम टपकते नूर की जगह एक अनिश्चिंतता..छटपटाहट..एक अजीब सी दयनीयता लेती जा रही थी। धीरे-धीरे ये सब भी समाप्त हो गए और पीले पडे चेहरे पर मात्र दिल को चीर कर रख देने वाली गहरी उदासी रह गई। बडी दीदी की तरह मंझली दीदी के पास किताबों का सहारा तो नहीं था सो उन्होंने स्वयं को घर के कामों में झोंक दिया..दो-तीन बार झाडू लगातीं..जरूरत न होने पर भी रसोई बनातीं..कपडे धोतीं..और ऐसा ही कुछ न कुछ काम निकाले रखतीं..बस..कभी न रुकने वाली मशीन बन कर रह गई थीं।


अपनी अविवाहित बेटियों की वेदना भंवर में फंसे मेरे मां-बाबू जी हमारे अंधकारमय भविष्य को संशय भरी नजरों से टटोला करते थे…दो का हश्र वे देख चुके थे, दो और जवान होने जा रही थीं। छोटी दीदी दोनों बडी बहनों की जीवन-यात्रा देख-देख कर आक्रामक हो चुकी थीं। क्षोभ और आक्रोश का चलता-फिरता ज्वालामुखी जो अब तक विस्फोट करके घर भर में विषैली जबान का लावा उडेला करता, गजब की दुस्साहसी..किसी भी मान्यता.. वर्जना को जूती की नोंक पर रखने वाली मेरी छोटी दीदी। वह मां-बाबूजी पर तीखे कटाक्ष करतीं, किसने कहा था चार-चार बच्चे पैदा करने के लिए.. गलती आपकी है और भुगत रहे हैं हम सब..। मंझली दीदी को तो अकसर उलाहना दे बैठती, मां-बाप की झूठी इज्जत को भूल कर खुद ही किसी आशिक को आगे बढ गले लगा लिया होता तो आज यह दुर्दशा न होती..। उनके अनुसार यदि हम सब बिरादरी की कहावत की परवाह न करके, सब शर्तो से ऊपर उठकर रिश्ता देखते तो एक पढी-लिखी प्राध्यापिका और मंझली दीदी जैसी सुंदर कन्या के लिए वर मिलना कोई मुश्किल बात नहीं थी। उनके अपनी तरह के तर्क होते जो कभी-कभी मुझे भी ठीक लगते। इन तीन चेहरों के बीच दो और बेबस लाचार चेहरे पीस रहे थे, मां-बाबूजी के चेहरे। मंझली दीदी के घर की जिम्मेदारी संभालने के बाद मां ने खुद को ईश्वर भक्ति में डुबो दिया। उनका सारा दिन और लगभग आधी रात घर के उसी एक कोने में पडे बीत जाते, जहां एक छोटा सा मंदिर स्थापित था। जब हम सब घर में होते तो वहां से कम ही उठतीं, शायद वह हमारे निराशा चेहरों का सामना करने से घबराती थीं। हर वक्त रिसती-पनियाली आंखें, कोई बाहरवाला देखता तो इसे भक्ति की पराकाष्ठा समझता, मगर मैं जानती थी कि ये बेटियों का दर्द है जो आंखों से निरंतर फूटता रहता है। बाबू जी भी हमारे लिए खुद को दोषी मानकर भीतर ही भीतर घुटते थे। परिस्थितियों के आगे आत्मसमर्पण कर बस अपने दिनों को आगे धकेल रहे बाबू जी का थका-हारा बुझा चेहरा शायद भगवान से अपने अंत की कामना करता रहता था। उनकी इस कामना को पूरी करने में छोटी दीदी के घर से भाग कर लिव-इन-रिलेशनशिप में रहने वाली घटना ने भरपूर योगदान दिया। ….और जब वह लगभग साल भर बाद गर्भवती होकर वापस लौटी तो मां बाबूजी के ताबूत में अंतिम कील भी ठुक गई। दीदी सदमे में थी, उनके प्रेमी का कहीं अता-पता न था। दहकता ज्वालामुखी शांत हो चुका था, सारा आक्रोश..सारी उत्तेजना हवा हो चुकी थी। वह किसी भयभीत मेमने की तरह अपनों की शरण चाहती थी। मां में तो अब इतनी क्षमता भी नहीं बची थी कि वह उनसे ढाढस के दो बोल ही बोल ले, मगर बडी दीदी और मंझली दीदी ने उन्हें अप्रत्याशित रूप से अपने आंचल से ऐसे ढांप लिया, जैसे कोई मां अपने डरे-सहमे बच्चे को खुद से चिपका कर उसे सर्वथा सुरक्षित होने का एहसास दिलाती है। मां-बाबूजी के गुजर जाने के बाद बडी दीदी पिता की जिम्मेदारी लेकर हमारा खर्च उठाने लगी और घर तो पहले से ही मंझली दीदी ने संभाल रखा था। कुछ दिनों बाद जब छोटी दीदी के छुटके का आगमन हुआ तो लगा जैसे बरसों से प्यासे रेगिस्तान पर पानी की बूंदे बरस पडी हों। हमेशा छायी रहने वाली उदासी और अवसाद के बादलों को हटाते हुए नन्ही किलकारियों की किरणें घर भर में फैल गई। जब भी छुटके को देखती तो दिल डरने लगता..लगता जैसे एक चेहरा और जुड गया हमारी श्रृंखला में।


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देखते ही देखते मैं भी तीस के पार हो चली थी। आईना कम ही देखती, क्योंकि जब भी देखती अपने चेहरे पर अपनी बहनों के चेहरे चढे नजर आते। पांच साल से एक कंपनी में कंप्यूटर ऑपरेटर का काम कर रही थी, मेरे अधिकतर सहकर्मी मेरे नीरस शुष्क चेहरे से घबराकर मेरे सान्निध्य से डरते थे, मगर एक शुभचिंतक थी, जो न जाने क्यों मुझसे सहानुभूति रखकर दोस्ताना बर्ताव करती थी। एक दिन उसने कुछ हिचकिचाहट के साथ मेरे सामने एक प्रस्ताव रखा। उसके एक परिचित थे। उम्र चालीस के आसपास थी। पत्नी पहली संतान को जन्म देते ही गुजर गई थी। तब से अकेले ही अपनी बेटी की देखभाल कर रहे थे। बेटी दस साल की हो चुकी थी। सौतेली मांओं के दु‌र्व्यवहारों के किस्से सुनकर दूसरी शादी से घबराते थे। मेरी शुभचिंतक सहकर्मी को पता नहीं कैसे मुझमें उस बच्ची के मां होने की संभावनाएं नजर आने लगी थीं। उसने अपनी मंशा जताई और मैं.. अवाक.. जड..एकदम निरुत्तर बैठी रह गई। क्या मेरे जीवन की कोई दूसरी गति भी संभव है?. क्या सच में मैं कभी उस दमघोंटू माहौल से अलग हट दूसरी दुनिया देख सकती हूं? इस खयाल ने मेरी सुप्त पडी अवचेतना को झकझोर दिया। …अगली सुबह उठ कर जब आईना देखा तो पहली बार मैंने वहां स्वयं को पाया। एक ऐसा चेहरा जिसकी आंखों में दम तोड चुका एक सपना अभी-अभी पुनर्जीवित हुआ था। पहली बार मैंने सोचा, यदि मैं माथे पर बिंदिया लगा लूं और मांग में सिंदूर भर पल्ले से सिर ढक लूं तो कैसी लगूंगी। और इस एक खयाल से ही मेरे चेहरे पर छाई बरसों की नीरसता यकायक गायब हो गई। लगा जैसे शहनाइयां बजने लगी हों और मैं सचमुच दुलहन बनने के खयाल से अपने आप में सिमटने लगी। फिर क्या था, अगले महीने ही मेरा चेहरा वास्तव में बिंदिया और सिंदूर से सज गया और मैं श्रीमती आनंदी श्रीनिवास बन गई। मेरी ही तरह श्रीनिवास के भीतर भी अनेक आशंकाएं, अनिश्चिंताएं भरी पडी थीं। दूसरे विवाह का द्वंद्व, एक बच्चे की चिंता जो सौतेली मां के आने से बहुत संभव था कि और बढ जानी थी, ऐसी कई-कई चिंताएं हम दोनों की ही तरफ से थी। मगर धीरे-धीरे दोनों ओर से भ्रम के बादल छंटने लगे और फिर एक प्रेम की नदी बहने लगी। एक ऐसा विवाह जिसका आधार मात्र कुछ सहमतियां और समझौते थे, वहां एक प्रेम की कपोलें भी फूटने लगी थीं। धीरे धीरे हम तीनों (मैं मेरे पति और हमारी बेटी) अपने-अपने खोल से बाहर आए और एक हो गए, परस्पर गुंथे हुए, बेहद आत्मीय और सुखी। ऐसा लग रहा था जैसे मेरे जीवन के सफेद कैनवस पर अनगिनत रंग उडेल दिए गए हों। मगर उस कैनवस का एक कोना अभी भी खाली था, वह कोना जहां मेरा अतीत छुपा बैठा था।


प्यार कोई खेल नहीं


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एक दिन श्री मुझसे बोले, क्यों न हम तुम्हारी छोटी दीदी के बेटे को कानूनी रूप से गोद ले लें। वैसे तो वह हमारा ही है, मगर इस तरह वह आगे आने वाली कुछ सामाजिक समस्याओं से बच जाएगा और हमारा परिवार भी पूरा हो जाएगा। श्री के बडप्पन से मैं अभिभूत हो उठी और उनसे लिपटकर रोने लगी। अपना जीवन संवार कर जिसके भविष्य के प्रति मैं सबसे ज्यादा चिंतित थी, वह छुटकू मेरे अपने हाथों में आ गया था। उसे हमने नया नाम विश्वास दिया, जो दीदी की पसंद का ही था। अब भगवान से कोई शिकायत शेष नहीं रही थी, मगर मन जब जब मेरी बहनों की ओर चला जाता, दिल बेचैनी से भर जाता। उस बेचैनी को मैं अपने हंसते-खेलते बच्चों को देख कर दूर कर लेती। रिटायरमेंट के बाद बडी दीदी संन्यासी होकर किसी मठ में चली गई थीं और मंझली दीदी का एक लंबी बीमारी के बाद देहांत हो गया। अपने कोख जाए बेटे विश्वास को सफलता के सोपान चढता देखना ही छोटी दीदी के लिए प्राण वायु का काम कर रहा था, जिसके सहारे वह अपने जर्जर शरीर में नाममात्र को जिंदा थी।


अरे ममा सो गई क्या? उठो, चलो पहले दूध पियो, श्रुति ने झकझोरा तो मैं उठ बैठी। बैठे-बैठे ही सो गई थी क्या? हूं.., जवाब में इतना ही कह पाई। अतीत से लौटने में कुछ वक्त लगता था मुझे।

दीप्ति मित्तल


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