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[Hindi Story] दौड़

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sakhi storyममा, व्हॉट इज बुआ?


हूं.. तानी को स्कूल के लिए तैयार करते स्नेहा के हाथ ठिठक गए।


ममा, मान्या कह रही थी वह आज स्कूल नहीं आएगी। वह अपनी बुआ के संग घूमने जाएगी। बुआ, मतलब पापा की बहन, तानी के शू लेस बांधते हुए स्नेहा ने बात खत्म करनी चाही। लेकिन हमेशा की तरह तानी के सवाल थमने का नाम नहीं ले रहे थे।

मेरी बुआ कहां है?


तुम्हारी बुआ नहीं है।


क्यों नहीं है?


तानी, बस निकल जाएगी जल्दी करो।


तानी को स्कूल बस में बिठाकर लौट रही स्नेहा गंभीर सोच में डूब गई। क्या होगा इस जेनरेशन का? ये बच्चे बुआ-मौसी जैसे रिश्ते तक नहीं समझते। लेकिन इनका क्या दोष? जो रिश्ता इन्होंने नहीं देखा उसे भला कैसे समझ पाएंगे? आज के डबल इनकम नो किड्स या एक बच्चे के जमाने में हो सकता है आगे बच्चे ये सवाल करें कि भाई क्या होता है? बहन क्या होती है? खुद वह भी अक्षत को कितनी मुश्किल से बच्चे के लिए मना पाई थी। वह तो तैयार ही नहीं थे। रिश्ते-नातों से कितना कट-छंट गए हैं हम? उम्र के अंतिम पडाव पर कहीं वह भी प्रेमचंद की सोमा बुआ की तरह अकेली न रह जाए। फर्क बस इतना कि सोमा बुआ के पति योगी थे और उसके पति भोगी यानी भौतिकतावादी। उसे अक्षत की प्रतिक्रिया याद आ गई।


बच्चा? नो वे.. स्नेहा! जानती हो कितना जिम्मेदारी वाला और खर्चीला सौदा है?

सौदा शब्द उसके सीने में तीर की तरह चुभा था। पर बाहर से वह शांत रही।


अभी तो घर की ही किस्तें चल रही हैं, फिर लग्जरी कार भी ले ली है। इसकी ई.एम.आई. भी अगले महीने से शुरू हो जाएगी। हम कैसे मैनेज कर सकते हैं?


कर लेंगे। कुछ एडवांस ले लेना। फिर मैं इतने महीने छुट्टी पर रहूंगी तो एक कार का फ्यूल भी बचेगा। कहो तो मेड को भी छुट्टी..।

नहीं-नहीं, उसकी जरूरत नहीं है। बीमार हो जाओगी तो दवा पर दुगना खर्च हो जाएगा। अब तुमने ठान ही लिया है तो ठीक है।


इस तरह तानी का जन्म हुआ था। यह अलग बात है कि आज वह डैडी की आंखों का तारा है।


अक्षत भौतिकवादी भले ही हों, लेकिन पिता के रूप में वह बहुत जिम्मेदार हैं। अपनी कंपनी के प्रतिष्ठित और दक्ष कार्यकर्ता माने जाते हैं। दु:ख है तो इस बात का कि वे जिंदगी को भी एक बिजनेस समझते हैं। संवेदनाएं, भावनाएं उनके लिए उपहास की वस्तु हैं। इससे उनके दिल की धडकनों पर कोई प्रभाव नहीं पडता। सेंसेक्स के उतार-चढाव के साथ उनकी धडकनें चढती-उतरती हैं। जिंदगी कितनी गुजर गई और कितनी बाकी है, इसमें उन्होंने क्या गुणात्मक पाया, क्या मात्रात्मक खोया, इसकी इन्हें परवाह नहीं। लेकिन मकान, कार, टीवी की कितनी किस्तें गई और कितनी बाकी हैं, यह सब उन्हें जुबानी याद है। जिंदगी को भी वे गाडी की तरह फुल स्पीड से दौडाना चाहते हैं। अच्छा भविष्य हर इंसान का सपना होता है, लेकिन उसके लिए इतना भौतिकवादी होना मुझे अखरता है। मैं हार गई, लेकिन उन्हें समझा नहींसकी कि इस तेज गति से भागते हुए कहीं वे यह न भूल जाएं कि उनके संग दौडने वाले बहुत पीछे रह गए हैं।


अव्वल तो इस अंधी दौड का कोई गंतव्य नहीं। किसी गंतव्य तक पहुंच भी जाएं तो वहां एक शून्य के अलावा उन्हें कुछ नजर नहीं आएगा।


विचारों में खोई नेहा के कानों में अक्षत के शब्द गूंज उठे, स्नेहा, तुम देखना मैं बहुत जल्द इतना पैसा कमा लूंगा कि दुनिया की हर खुशी हमारे कदमों में होगी। अक्षत के इस उन्माद में स्नेहा को अहंकार की बू आती।


खुशियां तो तुम हमें आज भी दे सकते हो अक्षत। मेरे और तानी के संग वक्त बिताकर।


स्नेहा कहना चाहती, लेकिन जुबान तालू से चिपककर रह जाती। जानती थी, ऐसी भावुक बातें अक्षत के लिए मायने नहीं रखतीं। विचारों में खोई स्नेहा घर पहुंचकर गृहस्थी के कामों में उलझ गई। लेट पहुंचकर अपराधी की तरह ऑफिस में अंदर जाना उसे पसंद नहीं था। अन्य सहकर्मियों की तरह वह न तो बॉस की चापलूसी कर सकती थी, न बहानेबाजी। उसे बस अपने काम से मतलब था। शायद इसलिए अपने करियर में ज्यादा ऊंचाई तक नहीं पहुंच पाई। हालांकि इसका उसे अफसोस भी नहीं था। उसकी प्राथमिकताएं अलग थीं। तानी के जन्म के समय उसने पुरानी नौकरी छोड दी थी, क्योंकि उसे अपेक्षित अवकाश नहीं मिल पा रहा था। अक्षत भुनभुनाया, लेकिन दूसरा कोई उपाय न देख शांत रह गया।


प्रसव के पंद्रह दिन बाद ही वह उसके लिए दूसरी नौकरी का प्रस्ताव जुटा लाया था।


अभी तो तानी बहुत छोटी है… स्नेहा अचकचा गई थी। वह अभी दो-तीन महीने घर रहने के मूड में थी या शायद नौकरी ही जॉइन न करती, ताकि तानी को पूरा वक्त दे सके। पर अक्षत ने उसके अरमानों पर पानी फेर दिया।


यह मुंबई है डियर। पैसा फेंको और सुविधाएं हाजिर। मेड मिल जाएंगी और फिर क्रेश किसलिए हैं! हारकर स्नेहा को फिर से काम पर जाना पडा। रात को रसोई समेटकर स्नेहा बेडरूम में पहुंची तो तानी सो चुकी थी। प्यार से उसके बालों में हाथ फिराते हुए स्नेहा लैपटॉप पर झुके अक्षत की ओर मुखातिब हुई, जानते हो, सवेरे स्कूल जाते वक्त तानी क्या पूछ रही थी? बुआ क्या होती है..? उसकी बुआ क्यों नहीं है?


अक्षत को लैपटॉप में ही उलझा पाकर वह चिढ उठी। यह आदत उसे परेशान करती है। पूरे दिन दूर रहने और थककर चूर होने के बाद रात में अक्षत के साथ कुछ सुखद पल बिताना चाहती, दिन भर की बातें बांटना चाहती। प्यार-रोमांस भरी बातें करना चाहती..। आखिर अभी वे युवा हैं, लेकिन अक्षत उन रोमांटिक पलों में भी लैपटॉप पर उंगलियां चलाता हां-हूं करता रहता।

कल वह यह पूछेगी कि भाई क्या होता है? बहन क्या होती है? क्या जवाब है तुम्हारे पास? तुम सुन रहे हो? स्नेहा का स्वर तीखा हो उठा था। सुन रहा हूं-समझ भी रहा हूं। स्नेहा, मैं तुम्हें पहले भी कह चुका हूं कि मेरी महत्वाकांक्षाएं बहुत ऊंची हैं। बच्चे उस राह में रुकावट ही डालेंगे। फिर भी तुम्हारी भावनाओं का खयाल रखते हुए हमने एक बच्चा पैदा कर लिया। अब प्लीज मुझसे और उम्मीद मत रखो। रही तानी की बात तो वह बच्ची है। जिज्ञासावश कुछ भी पूछ सकती है। उसकी जिज्ञासा को शांत करने के लिए हम अपने घर में बच्चों-रिश्तेदारों की लाइन तो नहीं लगा सकते ना?


स्नेहा कहना चाहती थी, भावनाओं को जगाने के लिए लाइन लगाना जरूरी नहीं है। भीड में रहकर भी इंसान निर्लिप्त बना रह सकता है और एकांत में रहते इंसान के दिल में भी संवेदनाओं का सोता उमड सकता है। सोच के इसी दायरे ने तो तुम्हें हद दर्जे का स्वार्थी बना दिया है। कोई आश्चर्य नहीं, अपने स्वार्थ के आगे तुम एक दिन अपनी बीवी और बच्ची को भी नजरअंदाज कर दो। लेकिन प्रत्यक्ष में वह हमेशा की तरह चुप रह गई।


सवेरे फिर वही मशीनी दिनचर्या आरंभ हो गई। फोन की घंटी बजी तो स्नेहा के हाथ और दिमाग की घूमती रील को ब्रेक लगा। फोन सुनकर वह बेडरूम में ऑफिस के लिए तैयार होते अक्षत के पास पहुंची।


रमा बुआजी का फोन था। बेटे के पास जा रही थीं। ट्रेन लेट थी और इस कारण उनकी अगली ट्रेन मिस हो गई। अगला रिजर्वेशन पता नहीं कब मिले। फिलहाल यहां आ रही हैं।


ओह, सवा आठ हो गए। मीटिंग के लिए लेट हो जाऊंगा। सारे कागजात तो मेरे पास हैं।


स्नेहा इस भूमिका का मतलब बखूबी समझ रही थी, ठीक है, मैं छुट्टी ले लूंगी, पर वे बुआ तुम्हारी हैं।


अक्षत ने सुनकर भी अनसुना कर दिया। ओके, शाम को मिलते हैं, बाय! एक किस उछालकर वह चलता बना। स्नेहा मुसकराकर रह गई। अक्षत की इन्हीं अदाओं के आगे वह मुंह नहीं खोल पाती थी। वह खाना बनाने की तैयारी करने लगी। रमा बुआजी बेहद अपनेपन से मिलीं। वे कसबे के स्कूल में अध्यापिका थीं। छुट्टियों में बेटे के घर जा रही थीं। भतीजे के घर आने का यह उनका पहला मौका था। स्नेहा नाश्ता लगाने लगी। तब तक उन्होंने नेट पर अपना रिजर्वेशन करवा लिया।


तीन दिन बाद की सीट मिली है, तब तक यहीं डेरा डालना होगा।

आपका ही घर है बुआजी, इसी बहाने आप आई तो।

बुआजी ने साथ लाए हुए लड्डू, मठरी, अचार टेबल पर निकाल दिए।

अरे, ये तो आप साथ ले जाइए। बच्चों के लिए बनाए हैं। स्नेहा ने रोकना चाहा।

तुब सब भी तो बच्चे हो मेरे। वहां तो मैं दो महीने रहूंगी, तब और बना लूंगी। उनका अपनापन देख स्नेहा अंदर तक भीग गई। तानी भी उनसे जल्दी ही घुल-मिल गई। उसे भी बुआजी-बुआजी पुकारते सुन स्नेहा ने टोका, ये तुम्हारी दादी हैं, बुआ तो डैडी की हैं।


ओह, हाऊ लकी ही इज!


लो अब तो बुआ होना भी सौभाग्य का सूचक हो गया। बुआजी ने स्नेहा की दुखती रग पर हाथ रख दिया था। तानी ने अब उन्हें एक नया संबोधन दे दिया था बुआ दादी। बुआ के लिए तरसता इसका मन शायद इसी में तृप्ति खोज रहा हो, सोचकर स्नेहा के चेहरे पर स्मित मुसकान उभर आई। अक्षत भी बुआजी से गर्मजोशी से मिला। स्नेहा हैरान थी। बारिश का मौसम देख बुआ ने दाल-बाटी-चूरमा बनाने का प्रस्ताव रखा और फिर खुद ही कमान भी संभाल ली। लंबे समय बाद पारंपरिक भोजन का लुत्फ उठाकर सबका मन प्रसन्न हो गया। भोजन के बाद गपशप का दौर चल निकला। दोनों के ही मन में कल छुट्टी कौन लेगा, जैसा प्रश्न उमड-घुमड रहा था कि तभी एक फोन ने उनकी खुशी गायब कर दी। स्नेहा के पिता को हार्ट अटैक पडा था। सुनते ही वह रोने लगी। बुआजी ने उसे हिम्मत बंधाते हुए कहा, अभी तो दो दिन मैं हूं यहां। तुम उनसे मिल आओ। अक्षत और तानी को मैं देख लूंगी। चार घंटे का ही तो रास्ता है।


स्नेहा घबराहट में सूटकेस में कपडे रखने लगी। तानी कभी मम्मी से अलग नहीं रही थी। मां से बिछुडने का गम था या बदलता मौसम, सुबह तक उसे हलका बुखार चढ आया।


इसे भी साथ ही ले जाती हूं वरना आपको परेशान करेगी। मेरा मन भी अटका रहेगा।


ठीक है, तुम इसका सामान रखो। मैं तब तक रास्ते का खाना पैक कर देती हूं। स्नेहा के साथ-साथ अक्षत भी बुआजी के प्रति बेहद कृतज्ञ महसूस कर रहा था। स्व से ऊपर उठने वाला इंसान कितना श्रद्धेय हो जाता है, पहली बार वह यह बात महसूस कर रहा था।


..अगली सुबह खयालों में गुम तेज गति से ऑफिस की ओर जाते अक्षत का ध्यान रेडियो पर आ रहे विशेष बुलेटिन से भंग हुआ। ट्रेन में दो बम धमाकों की खबर थी। दोबारा सुना तो यह वही ट्रेन थी, जिसमें स्नेहा और तानी जाने वाले थे। घबराहट में गाडी पर से उसका संतुलन खो गया और अगले ही पल गाडी किनारे के पेड से टकराई। अक्षत बेहोश हो गया। कुछ पल बाद आंखें खुलीं, लेकिन फिर बेहोश हो गया।


…कुछ घंटे बाद होश आया तो उसने स्वयं को अस्पताल के बिस्तर पर पाया। सिर में असहनीय दर्द था। हाथ फेरा तो वहां पट्टी बंधी थी।


टांके आए हैं। सिर फट गया था। अब कैसा लग रहा है? बुआजी ने दुलार से पूछा तो अक्षत की आंखें बरस पडीं। बुआ, वो स्नेहा, तानी…वे कहां हैं?


वे बिलकुल ठीक हैं, आते ही होंगे। बुआ ने अक्षत के सिर में हाथ रखते हुए उसे सांत्वना दी। कुछ ही देर में तानी को गोद में उठाए हुए स्नेहा बदहवास हांफती हुई आ पहुंची। बुआजी ने लपककर उन्हें बांहों में भर लिया। एक्सीडेंट के बाद यह बेहोश हो गया था। किसी भले आदमी ने इसके मोबाइल से घर फोन किया और इसे हॉस्पिटल ले गया। सिर से काफी खून बह गया था। यह तो अच्छा हुआ कि मेरा ब्लड ग्रुप इससे मेल खाता था। खून चढाना पडा है इसे।


बुआजी, हम आपका एहसान..।


पागल हो क्या? अपनों का भी कोई एहसान होता है? तुम लोग तो ठीक-ठाक हो न?


आप की बदौलत बाल-बाल बच गए। जानते हो अक्षत कैसे बच सकी मैं? मैं तानी को लेकर ट्रेन में चढने ही वाली थी कि बुआजी का फोन आ गया। मैं तानी को लेकर नीचे कोने में खडे होकर बात करने लगी। वे तानी के लिए हिदायतें दे रही थीं। उसे ओढाकर रखना, बाहर का कुछ मत खिलाना, उसके लिए अलग से दलिया रखा है, वही खिलाना..। फोन बंद किया ही किया था कि एक के बाद एक वहां दो विस्फोट हो गए। मैं तानी को उठाकर भागी। सामान वहीं छूट गया। भगदड में बाहर निकलकर मुश्किल से एक टैक्सी की। टैक्सी ड्राइवर ने किराया भी नहीं लिया। तुम फोन नहीं उठा रहे थे। बुआजी का फोन लगा और उन्होंने ही मुझे यह खबर दी और मुझे सीधे हॉस्पिटल पहुंचने को कहा।


अब तक हिम्मत बांधी हुई थी, अब सब्र का बांध टूट गया और स्नेहा सिसकने लगी। अक्षत ने उसे बांहों में भर लिया।


स्नेहा, सच कहूं तो इन चंद घंटों में मैं सौ बार जिया और सौ बार मरा हूं। मौत को इतने करीब से देखने के बाद मुझे ऐसा महसूस हो रहा है मानो मेरा पुनर्जन्म हुआ है। अब तक भौतिक सुख-सुविधाओं के पीछे भागता रहा। सच कहता हूं, उस क्षण को मुझे एक पल भी इन सब चीजों का खयाल नहीं आया। भगवान से यही मांगता रहा कि मेरा सब-कुछ ले लो, लेकिन मेरी स्नेहा और तानी को मुझसे न छीनो। मेरी जिंदगी के तराजू में प्यार-स्नेह, ममता, सहानुभूति का पलडा अचानक ही बहुत भारी हो गया है। मैं अब तक जाने किस सुख के पीछे अंधी दौड लगा रहा था। कस्तूरी तो मेरी अपनी नाभि में छुपी हुई थी और मैं उसे बाहर ढूंढ रहा था।


भावावेश में अक्षत ने दोनों बांहें फैला दींऔर तानी, स्नेहा और बुआ को समेट लिया।

Source: Jagran Sakhi

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